बुधवार, 15 जून 2016

महाभारत के 10 रहस्य जो आजतक रहस्य ही हैं..

महाभारत हिन्दुओं का प्रमुख ग्रंथ है जिसमें कौरवो और पाड़वो की कथा का वर्णन है। इसे हिन्दू धर्म का पांचवा वेद भी माना जाता है। आप ये जान कर हैरान रह जाएंगे कि युद्ध के बाद महाभारत शुरू हुई थी, जिसमें छिपे रहस्य के आस-पास भी हम नहीं पहुंच पाए हैं. आज हम उन रहस्यों को आपके सामने पेश कर रहे हैं, जिनके बारे में आपने कभी सुना भी नहीं होगा।

1. 18 का रहस्य

महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक चला था, इस किताब के 18 अध्याय हैं, श्री कृष्ण ने अर्जुन को 18 दिनों तक गीता का ज्ञान दिया था. गीता में भी 18 अध्याय हैं। कौरवों और पांडवों की कुल सेना 18 अक्षोहिनी थी, और इस युद्ध में मात्र 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। ये 18 के आंकड़ों के पीछे का राज़ आज तक कोई नहीं समझ पाया है।

2. अश्वत्थामा

गुरू द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को श्री कृष्ण ने अमरता का श्राप दिया था, क्योंकि उसने युद्ध के दौरान ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया था. अश्वत्थामा के इस काम से कृष्ण क्रोधित हो गए थे और उन्होंने अश्वत्थामा को श्राप दिया था कि ‘तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हज़ार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा. तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध आती रहेगी, तू बहुत-सी बीमारियों से पीड़ित रहेगा’। आज भी कई जगहों पर अश्वत्थामा के देखे जाने की बात कही जाती है. अब इन बातों में कितनी सच्चाई है इसका अंदाज़ा हम लगा भी नहीं सकते।

3. कौरवों का जन्म एक रहस्य

धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और एक पुत्री थी, जिन्हें कौरव कहा जाता था। कुरु वंश के होने के कारण ये कौरव कहलाए. लेकिन गांधारी के गर्भ धारण के दौरान धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ संबन्ध बनाए जिससे कौरवों की संख्य़ा 100 हुई थी. गांधारी ने वेदव्यास से पुत्री के लिए वरदान हासिल किया, मगर गांधारी के कोई भी बच्चा नहीं हुआ. गुस्से से भरी गांधारी ने अपने पेट पर जोर से मुक्का मार लिया जिससे उसका गर्भ गिर गया. जैसे ही वेदव्यास को इस बात का पता चला उन्होंने फ़ौरन गांधारी को 100 कुएं खुदवाने को कहा, जिसमें उन्होंने घी भरवा कर मर हुए बच्चे का अवशेष उसमे डाल दिया, जिससे कौरवों का जन्म हुआ था।

4. महान योद्धा बर्बरीक

भीम के पौत्र बर्बरीक का ये वचन था कि वो हारे हुए पक्ष से लड़ेगा. बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरव और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे. यह जान कर भगवान कृष्ण ब्राह्मण का रूप लेकर उनके सामने गए और दान में उनका शीश मांग लिया. शीश दान करने के बाद बर्बरीक ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे अंत तक युद्ध देखना चाहते हैं, तब कृष्ण ने उनकी यह बात मान ली. भगवान ने उस शीश को अमृत से नहलाकर सबसे ऊंची जगह पर रख दिया ताकि वे महाभारत का युद्ध देख सकें।

5. विमान और परमाणु शस्त्र

मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिले कंकाल में रेडिएशन का असर मिला था, जिसे लोग महाभारत से जोड़ के देखते हैं. कहा जाता है कि महाभारत काल में परमाणु बम थे. महाभारत में सौप्तिक पर्व के अध्याय 13 से 15 तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम बताए गए हैं। हिंदू इतिहास के जानकारों के मुताबिक 3 नवंबर 5561 ईसा-पूर्व अश्वत्थामा के ज़रिए छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था।

6. राशियां नहीं थीं ज्योतिष का आधार

महाभारत काल में ज्योतिष, राशियों के आधार पर कुछ नहीं बताते थे, क्योंकि उस वक्त राशियां नहीं थीं. ग्रह और नक्षत्रों द्वारा इस काम को किया जाता था।

7. विदेशी भी शामिल हुए थे लड़ाई में

महाभारत के युद्ध में सिर्फ़ भारत के ही नहीं बल्कि विदेशी योद्धा भी शामिल हुए थे. एक ओर जहां यवन देश की सेना ने युद्ध में भाग लिया था, वहीं दूसरी ओर ग्रीक, रोमन, अमेरिका, मेसिडोनियन आदि योद्धाओं के लड़ाई में शामिल होने का प्रसंग आता है. इस आधार पर यह माना जाता है कि महाभारत विश्व का ‘प्रथम विश्व युद्ध’ था।

8. किस ने लिखी महाभारत

ज़्यादातर लोग यह जानते हैं कि महाभारत को वेदव्यास ने लिखा है लेकिन यह अधूरा सच है. वेदव्यास कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि थी, जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी. महाभारत की रचना 28वें वेदव्यास कृष्णद्वैपायन ने की थी, इससे पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे।

9. अभिमन्यु को किसने मारा था?

लोग यह जानते हैं कि अभिमन्यु की हत्या चक्रव्यूह में सात महारथियों द्वारा की गई थी, लेकिन यह सच नहीं है. महाभारत के मुताबिक, अभिमन्यु ने बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मौजूद सात में से एक महारथी (दुर्योधन के बेटे) को मार गिराया था. इससे नाराज़ होकर दुशासन के बेटे ने अभिमन्यु की हत्या कर दी थी।

10. तीन चरणों में लिखी महाभारत

महाभारत एक किताब है लेकिन इसे तीन चरणों में लिखा गया था. पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24,000 और तीसरे चरण में 1,00,000 श्लोक लिखे गए थे. वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है।

सोमवार, 13 जून 2016

हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य

लख चौरासी भोग के पौ पे अटके अ।य ।अबकी पासा ना पड़े तो फिर चौरासी जाय ॥ उपरोक्त दोहे का मतलब यह है कि चौरासी लाख योनियौँ को भोगने के बाद जब परमात्मा जीव पर दया करता है तो यह मानव जीवन प़दान करता है और इसका उद्देश्ये परमात्मा को प़ाप्त करना होता है । लेकिन मानव सँसार मे अ।ने के बाद परमात्मा को भूल जाता है और वह संसारिक सुखों को प़ाप्त करना ही अपने जीवन का उद्देश्य.मान लेता है ।

अ।पने देखा होगा कि मानव हर वक्त किसी सुख या खुशी की तलाश मे रहता है ओर वह संसार में उपलब्घ वस्तुओं में उस सुख को तलाश करता है । इस के लिए वह संसार से उन सभी वस्तुऔ को जुटाता है जो उसे खुशी दे सके ओर सभी वस्तुएं थोड़ी देर के लिए ही सही खुशी प़दान करती है लेकिन यह खुशी सास्वत नही होती ओर अगले ही क्षण समाप्त हो जाती है । क्या अ।पने सोचा है, कि ए॓सा क्यों होता है ? क्यो कि अ।त्मा शरीर घारण करने से पहले जब परमात्मा के सानिघ्य मे रहता था तब वह परमानन्द का उपभोग करता था इसलिए वह उस अ।नन्द की तलाश इस नस्वर संसार मे करता है ओर उसे पाने के लिए संसारिक सुखों व सुविघाओं को इकठ्ठा करता है, लेकिन वह भुल जाता है कि संसार मे वह सुख नही है । इसी तरह जीव अपना पूरा जीवन बीता देता है लेकिन उस परमानन्द को प़ाप्त नही कर पाता है जिसका पान उसकी अ।त्मा पहले कर चुकी है, क्योंकि वह अ।नन्द इस संसार में नही है, वह तो परमात्मा के पास ही है ओर इसे पाने के लिए तो परमात्मा को पाना होगा ओर उसे पाने के लिए, वह विघा जानने की अ।वश्यकता होती है, जिससे उसे पाया जा सके ।

इस संसार में दो तरह की विघांए होती है पहली अपरा विघा व दूसरी परा विघा । संसार मे जीवन यापन के लिए अपरा विघा की अ।वश्यकता होती है (जिसमे वेद भी सम्लित है )तथा परमात्मा को पाने के लिए परा विघा की । यह भी पूण॔तः वैज्ञानिक विघा है, इसे मघु विघा या ब़म्ह विघा भी कहते हैं । सदगुरु इस विघा का अ।चाय॔ होता है, जो इस विघा को जानता है । अतः सदगुरु की खोज कर यह विघा सीखनी चाहिए ताकि अ।त्मा को जिस परमानन्द की तलाश है, वह उसे पा सके ।


 मानव शरीर के कार्य 

आज दैनिक जीवन में कम्प्यूटर का महत्व तो आप सभी जानतें हैं । इसका कार्य करने का तरीका भी जानते हैं । कम्प्यूटर में एक हार्ड डिस्क, रैम, रोम, प्रोसेसर इत्यादि सभी चीजें होती है तथा सभी का अपना कार्य होता है । कुछ इसी प्रकार हमारा शरीर भी कार्य करता है । उसमें भी मन, बुद्धि, चित व अहंकार ये चार अन्तःकरण है तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः हाथ, पाँव, पायू, उपस्थ, वाणी है तथा पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः नाक, कान, जीभ, आँख व त्वचा है । इन सब का अपना कार्य है ।

चित मानव शरीर में स्थापित एक हार्ड डिस्क है जो हमारे सामने आने वाले हर दृश्य, संवाद तथा विचार को हमारे न चाहते हुए भी रिकार्ड कर लेता है । चित मे जो विचार संग्रहित होते है उन से ही हमारे संस्कार बनते हैं तथा उसी के अनुसार हम अपना कर्म करते हैं ।

जब भी हमें कोई कार्य करना होता है तो चित मे एक विचार उठता है जिसको हमारा मन पकड़ता है तथा विशलेषण करने के लिए बुद्धि को दे देता है और बुद्धि उसका विशलेषण करती है कि इस कार्य को कैसे सम्पन्न करना है और अपना निर्णय पुनः मन को दे देती है। मन उस निर्णय के अनुसार उस कार्य को सम्पन्न करने का आदेश इन्द्रियों को देता है और इन्द्रियों के माध्यम से वह कार्य सम्पन्न होता है और कार्य सम्पन्न होने के बाद यह विचार कि कार्य "मैने किया" यही अहंकार है । इस प्रकार जो कार्य किया गया उसका फल जैसा भी हो अच्छा या बुरा हमारी आत्मा को भोगना पड़ता है । जिसकी इस कार्य को करने मे कोई भुमिका नही होती है । इसका दोष केवल इतना होता है कि मन जिस शक्ति का उपयोग करता है वह आत्मा की होती है ।

यदि हम अपने मन पर नियन्त्रण स्थापित करलें तो यह कोई ऐसा काम नही करेगा जिसका फल अशुभ हो, लेकिन मन पर नियन्त्रण करना भी इतना आसान नही है । इसके लिए हमे ऐसे गुरु की खोज करनी होगी जो यह बताये की मन पर नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है ।

इस तन में मन कहाँ बसे निकस जात किस और ।
गुरु गम हो तो परख ले नही तो गुरु कर ओर ॥

अथार्त इस शरीर में मन का निवास कहाँ है, यह ज्ञान हो जाने पर ही इसको वश मे किया जा सकता है, जब तक हमे इसके निवास का ज्ञान ही नही होगा हम उसे वश मे कैसे कर सकतें हैं । अतः हमारे गुरु वह हो जिन्हे यह पता हो कि इस शरीर में मन का निवास कहाँ हैं । उसके बाद वह हमें बतलाए कि इसे कैसे वश मे किया जाये ।

 आत्मा का शरीर
 यह तो हम सभी जानतें हैं कि मानव शरीर आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल इन पाँच तत्वों सें निर्मित है । लेकिन क्या यह पता है कि आत्मा के भी छः देह क्रमशः हँस देह, कैवल्य देह, महाकारण देह, कारण देह, सूक्ष्म देह तथा स्थूल देह होती है ।


स्थूल शरीरःइसका निर्माण पाँच तत्वों आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल से होता है । इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ क्रमशः कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका होती है, जो शब्द स्पर्श, रुप, स्वाद तथा गंध के सवेंद ग्रहण करती है और पाँच कर्मेन्द्रियाँ क्रमशः वाणी, हाथ, पांव, लिंग तथा गुदा होती हैं जो बोलने, पकड़ने, चलने, मूत्रत्याग एवं प्रजनन करने तथा मल त्याग करने की क्रियाँए सम्पन्न करती है । इनके अतिरिक्त चार भीतरी इन्द्रियाँ (अन्तःकरण;) - मन, बु‍ध्दि, चित्त तथा अंहकार होते है । पाँच प्राणः प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान व पाँच उप प्राणः कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त होते हैं । इन सभी में मन महत्वपूर्ण है ।

सुक्ष्म शरीरःयह स्थूल शरीर से भिन्न है क्योंकि इसमे केवल उन पाँच तत्वों का अभाव होता है जिनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है बाकी सभी इन्द्रियाँ, प्राण व अन्तः करण बीज रुप में विद्यमान रहतें हैं । 

कारण शरीरःकारण शरीर में मन, बुद्धि व प्राण का अभाव हो जाता है । आत्मा का यह शरीर कारण शरीर कहलाता है । यानि इसमें चित्त, अहंकार व प्रकृति के तीन गुण सत, रज व तम विद्यमान रहतें है।

महाकारण शरीरःइस शरीर में प्रकृति के तीनो गुणो का भी अभाव हो जाता है और आत्मा असीमित बल व तेज को प्राप्त करता है ।

कैवल्य शरीरःइस शरीर में आत्मा परमात्मा सें सयुंक्त होकर असीम आनंद को प्राप्त करता है और परमात्मा सें सयुंक्त होने के कारण परमात्मा के सारे गुणो को ऐसे ही धारण कर लेता है जिस प्रकार लोहा अग्नि के सम्पर्क में आने पर अग्नि के सारे गुणो को धारण कर लेता है और इस स्थिति में आत्मा में "मैं ब्रह्म हूँ " ऐसे भाव का उदय होता है । आत्मा का यह अहंकार भाव अज्ञानवश होता है और यह भाव ही आत्मा के पतन का मुख्य कारण है ।

हँस शरीरःयह आत्मा की शुद्ध अवस्था है । जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने इस अहंकार भाव का त्याग करता है तो परमात्मा के साथ स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित होता है । आत्मा की यह अवस्था हँस अवस्था होती है । इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाता है ।
 आपको अपने विषय में पता है ..? अगर किसी से पुछा जाये कि तुम कौन हो ? वह अपना नाम बताएगा कि मैं अमुक व्यक्ति हूँ या अमुक जाति का हूँ लेकिन कभी आपने सोचा है कि हम रोज कहते है कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा पाँव है, यह मेरा शरीर है तथा यह मेरी आँख है । कभी एकान्त में बैठकर सोचा है कि यह सब मेरा है लेकिन जो यह कह रहा है कि "यह मेरा है" वह कौन है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? शायद नही किया होगा । क्योंकि आपको अपने लिए इतना समय ही कहाँ मिला होगा कि सोच सको कि मै कौन हूँ । आप इसे पढ़कर जरुर सोचना । एकान्त मैं बैठकर सोचने से जवाब मिलेगा तू आत्मा है, तू जीव है, जीवात्म है, तू चाहे किसी भी जाति का हो, कोई भी भाषा बोलता हो या किसी भी धर्म का हो इससे कोई फर्क नही पड़ता है ?
यह जो तेरा शरीर है वह तू नही है, इस स्थूल शरीर के अन्दर सुक्ष्म शरीर, कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी तू नहीं है । मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी तू नही है । न ही तू दस इंन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक या जीभ ही है और न तू हाथ, पैर, पायु, उपस्थ एवं वाणी ही है । तू न प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान है और न कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त ये पांच उप प्राण ही है ।
तू न मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ब्रह्मरंध्राख्य, आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रार चक्र ही है । तू अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश भी नहीं है । तू तो शुद्ध चेतन, नित्य- अनादि एकदेशीय सत्ता है । तेरा स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी छोटा है । तू सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्व समर्थ नहीं है । तू आनंदाभिलाषी, सत्, चित् स्वरुप आत्मा है । तेरे अंदर अज्ञान का आविर्भाव होने से तू अपने आप को शरीर समझ रहा है । तू अपने आप को ज्ञानी, ध्यानी, पंडित, मौलवी, गुरु या इसी प्रकार का कुछ अन्य समझ रहा है । तू अपने आप को परमात्मा तक मान बैठा है । बता तो सही जिस परमात्मा ने इतनी विशाल, अनंत सृष्टि का निर्माण कर डाला है, जिसकी अनंतता का माप करते - करते तू थका जा रहा है तुझे इसकी थाह का पता नही चल रहा है, वही परमात्मा क्या तू है ? यह तेरे अज्ञान - भ्रम का परिणाम है कि तू नन्ही- सी सत्ता अपने - आपको समग्र सृष्टि में व्यापक ब्रह्म समझ रहा है । कैसी विडंबना है ? कितना धोखा है? तू मन के प्रभाव में आकर मन- मोदक से अपनी क्षुधा को तृप्त करना चाहता है । अभी भी अवसर है । तू सचेत हो जा । अपने आप को पहचान ले । अज्ञान, कर्म तथा जड़- चेतन की ग्रंथि से तू अपने- आप को मुक्त करले, पर यह होगा कैसे ? क्या अपने आप हो जाएगा ? क्या अपने जैसे ही बंधनग्रस्त जीवों को अपना गुरु बनाकर उनके द्वारा तू इन बंधनो से मुक्त हो पाएगा ? जो स्वयं बंधन में है, वह किसी दूसरे बंधनग्रस्त को बंधन से मुक्त कैसे करेगा ? अतः तू खोज कर उस गुरु की जो तुझे अपने आप को जानने का ज्ञान बता दे ।

शुक्रवार, 10 जून 2016

!! ध्यान !! !! योग !! !! साधना !! और !! उपासना !!

!! ध्यान !! ........
ध्यान वो जो ''आत्मा'' और ''परमात्मा'' के बीच दूरी समाप्त कर सके....ध्यान वो जो जीवों को दिव्य धारणा प्रदान कर सकें...ध्यान वो जो वाह्य जगत से अन्दर की ओर प्रवेश करा सकें...ध्यान ''परमात्मा'' और ''आत्मा'' के बीच में आंशिक रूप से भी जगत प्रवेश न कर सकें......

!! योग !!.......
''आत्मा'' और ''परमात्मा'' का मिलन योग...''जीव'' और ''ब्रह्म'' का एक होना योग...योग ''शिष्य'' का पूर्णतः ''गुरु'' में समाहित हो संसार में रहते संसार से पार हो, ''प्रभु'' को प्राप्त करना......

!! साधना !! ........
साधना का अभिप्राय अपने तन-मन-प्राण स्वांस, ज्ञानेन्द्रिय इन सभी को अपने बस में कर जीवन को गतिशील करना...साधना ''स्व'' को अपने में साध लेना...साधना ''''गुरु' '' को बोध करानें का पहला चरण.......
यदि कोई साधक सच्चे मन से अपने आपको, अपने तन-मन, स्वांस और प्राण को, अपने ज्ञानेन्द्रियों को भली-भांति साध लेता है, वही ध्यान के माध्यम से योग में उतर ''गुरु'' को अर्थात ''परमात्मा'' को प्राप्त कर पाता है.......
!! उपासना !!..........
''साधना'' पहला चरण, ''ध्यान'' दूसरा चरण और ''योग'' तीसरा चरण ,फिर इसके बाद चौथा चरण आता है ''उपासना'' का...और फिर ''शक्ति-चैतन्य''...''तटस्थ'' का पूर्णतः जीव में समावेश और पूर्णतः आनंदमय होकर, पूर्णता के साथ संसार और प्रभु को जीते, संसार सागर में रहते हुए संसार से पार...पर जीवों को ''उपलब्धि'', ''पूर्णता'' का आभास तभी हो सकता है, जब जीव इन चरणों में समर्पण करे ......
साधना, ध्यान, योग, उपासना और परमात्मा को नाम से हर जीव जनता है...पर उसे कैसे जाना जायें ..? उस ''परम-सत्ता'' को कैसे पिया जायें..? कैसे अपने रोम-रोम में बसाया जायें ..? और कैसे उस ''परम-प्रभु'' में पूर्णतः विलीन हो जीवन को गतिशील किया जायें ..?
ये युक्ति जीव साधारणतः नहीं जान पाता है, इसके लिए ''सदगुरु'', की आवश्यकता हर जीव को हर योनियों में होती है...कही-कही भावना प्रबल होती है...प्रार्थना, दिव्यता और पवित्रता को धारण किये रहती है तो ''सदगुरु'' स्वयं ह्रदय में स्थापित हो जीव को जाग्रत कर अपना बोध करा देता है...पर यह ''परमात्मा'' का स्वरुप अति ही सरल पर दुर्लभ है...इसलिए ''परमात्मा'' किसी न किसी मानव के रूप में, इस पृथ्वी पर आ मानव को कई-कई युक्तियों के माध्यम से अपनी ओर गतिशील करता है.......
और निश्चित ही साधकों को ''पूर्णता'' प्राप्त हो जाती है , किन्तु साधक में ''श्रद्धा'', ''भाव'', ''समर्पण'' और ''विश्वास'' का समावेश होना जरुरी होता है......