#शास्त्रोक्त ध्यान करने की विधि:
#गीता अध्याय 06 : श्लोक 11-14
शुचै, देशे, प्रतिष्ठाप्य, स्थिरम्, आसनम्, आत्मनः,
न, अत्युच्छ्रितम्, न, अतिनीचम्, चैलाजिनकुशोत्तरम्।।11।।
शुद्ध स्थान में जिसके ऊपर क्रमशः कुशा मृगछाला और वस्त्रा बिछे हैं जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।
तत्रा, एकाग्रम्, मनः, कृत्वा, यतचितेन्द्रियक्रियः,
उपविश्य, आसने, युज्यात्, योगम्, आत्मविशुद्धये।। 12।।
उस आसन पर बैठकर चित और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिये साधना का अभ्यास करे।
समम्, कायशिरोग्रीवम्, धारयन्, अचलम्, स्थिरः,
सम्प्रेक्ष्य, नासिकाग्रम्, स्वम्, दिशः, च, अनवलोकयन्।।13।।
काया सिर और गर्दन को समान एवम् स्थिर धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।
प्रशान्तात्मा, विगतभीः, ब्रह्मचारिव्रते, स्थितः,
मनः, संयम्य, मच्चितः, युक्तः, आसीत, मत्परः।।14।।
ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला मन को रोककर लीन चितवाला मतावलम्बी मत् अनुसार अर्थात् जो काल विचार दे रहा है ऐसे करता हुआ साधना में संलग्न स्थित होवे।
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