गुरुवार, 1 जनवरी 2015

गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों को २४ देवताओं का शक्ति –

गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों को २४ देवताओं का शक्ति – बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । प्रकारान्तर से इस महामंत्र को २४ देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं । इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्र बतलाते हैं-

गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है । इन २४ अक्षरों की शब्द शृंखला में बँधे हुए २४ देवता माने गये हैं- गायत्र्या वर्णमेककं साक्षात देवरूपकम् । तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्यति॥ -गायत्री संहिता अर्थात्-गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है । इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है ।



दैवतानि शृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः ।
आग्नेयं प्रथम प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम्॥

तृतीय च तथा सोम्यमीशानं च चतुर्थकम् ।
सावित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम्॥

वार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैवावरुणमष्टमम् ।
नवम भगदैवत्यं दशमं चार्यमैश्वरम्॥

गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकं स्मृतम् ।
पौष्णं त्रयोदशं प्रोक्तमैद्राग्नं च चतुर्दशम्॥

वायव्यं पंचदशकं वामदेव्यं च षोडशम् ।
मैत्रावरुण दैवत्यं प्रोक्तं सप्तदशाक्षरम्॥

अष्ठादशं वैश्वदेवमनविंशंतुमातृकम् ।
वैष्णवं विंशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥

एकविंशतिसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम् ।
त्रयोविशं च कौवेरेगाश्विने तत्वसंख्यकम्॥

चतुर्विंशतिवर्णानां देवतानां च संग्रहः । -(गायत्री तंत्र प्रथम पटल)

अर्थात्-हे प्राज्ञ! अब गायत्री के २४ अक्षरों में विद्यमान २४ देवताओं के नाम सुनों- (१) अग्नि (२) प्रजापति (३) चन्द्रमा (४) ईशान (५) सविता (६) आदित्य (७) बृहस्पति (८) मित्रावरुण (९) भग (१०) अर्यमा (११) गणेश (१२) त्वष्टा (१३) पूषा (१४) इन्द्राग्नि (१५) वायु (१६) वामदेव (१७) मैत्रावरूण (१८) विश्वेदेवा (१९) मातृक (२०) विष्णु (२१) वसुगण (२२) रूद्रगण (२३) कुबेर (२४) अश्विनीकुमार ।

गायत्री ब्रह्मकल्प में देवताओं के नामों का उल्लेख इस तरह से किया गया है- १-अग्नि,२-वायु, ३-सूर्य, ४-कुबेर, ५-यम, ६-वरुण, ७-बृहस्पति, ८-पर्जन्य, ९-इन्द्र, १०-गन्धर्व, ११-प्रोष्ठ, १२-मित्रावरूण, १३-त्वष्टा, १४-वासव, १५-मरूत, १६-सोम, १७-अंगिरा, १८-विश्वेदेवा, १९-अश्विनीकुमार, २०-पूषा, २१-रूद्र, २२-विद्युत, २३-ब्रह्म, २४-अदिति ।

गायत्री संस्कृत-व्याकरण के अन्तर्गत 24 मात्राओं वाला एक छन्द मात्र है । चूँकि यह छन्द ज्ञेय यानी सुन्दर लय-स्वर में गाया जाने वाला है, इसलिये छन्द के प्रकारों में इस गायत्री छन्द का विशेष महत्व है– विशेष मान्यता है । प्रारम्भ में ॐ देव के प्राप्ति और मांग के पूर्ति हेतु जब लिपिबद्ध किया गया तो यह मन्त्रवित् लिपिबद्धता 24 मात्राओं में जाकर पूरी हो गयी अर्थात् यह ॐ देव मन्त्र गायत्री छन्द में लिपिबद्ध हो गया, यानी इस मन्त्र का छन्द तो गायत्री हुआ मगर इसका अभीष्ट ॐ देव हुआ । पहले-पहल मन्त्र को देखा जाय—ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।जब आप सभी इस मन्त्र की वास्तविकता को जानने-समझने-देखने-परखने चलेंगे तो मिलेगा कि यह मन्त्र त्रिपदी है यानी तीन पदों — तीन भागों वाला है । पहले पद या भाग में ‘ॐ भूर्भुव: स्व:’ अर्थात् ॐ जो ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनों का ही सम्मिलित संयुक्त सांकेतिक नाम है और भू: ब्रम्हा का, भुव: विष्णु का और स्व: महेश का वास स्थान यानी पता रूप स्थान है। दूसरा पद-भाग ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि’ का अर्थ भाव है कि उस सूर्य का भी वरणीय (उपास्य) तेजस्वरूप देव का ध्यान करता हू¡ यानी इस दूसरे पद-भाग में मन्त्र के अभीष्ट उपास्य देव का रूप पहचान बताया गया है और तीसरे पद-भाग ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ का अर्थ भाव है कि अपने उपास्य देव जिसका ध्यान करता हू¡, कहा गया है, से मांग किया गया है कि जिससे मेरी बुध्दि (सत्य के प्रति– सत्कर्म के प्रति सदा ही) उत्प्रेरित रहे ।इस मन्त्र में किसी भी शब्द का अर्थ गायत्री देवी नहीं और गायत्री मन्त्र नहीं है । मन्त्र का अभीष्ट कोई स्त्रीलिंग देवी नहीं है बल्कि ‘देवस्य’ स्पष्टत: पुलिंग ‘देव का’ अर्थ भाव है ।

“ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं “ 
ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं । मोटे रूप से इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि-स्वर संहिता कह सकते हैं । सामवेद में मंत्र विद्या के महत्त्वपूर्ण आधार उच्चारण विधान-स्वर संकेतों का विस्तारपूर्वक विधान, निर्धारण मिलता है । प्रत्येक वेद मंत्र के साथ उदात्त-अनुदात्त-स्वरित के स्वर संकेत लिखे मिलते हैं । यह जप एवं पाठ प्रक्रिया का सामान्य विधान हुआ । पर यह वर्णन भी बालबोध जैसा ही है । वस्तुतः छन्द उस साधना प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें प्रगति के लिए समग्र विधि-विधानों का समावेश हो ।

साधना की विधियाँ वैदिकी भी हैं और तांत्रिकी भी । व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उनके क्रम-उपक्रम में अन्तर भी पड़ता है । किस स्तर का व्यक्ति किस प्रयोजनों के लिए, किस स्थिति में क्या साधना करे, इसका एक स्वतंत्र शास्र है । इसका स्पष्ट र्निदेश ग्रंथ रूप में करा सकना कठिन है । इस प्रक्रिया का निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक की सूक्ष्म दृष्टि पर निर्भर है । रोगों के निदान और उनके उपचार का वर्णन चिकित्सा ग्रंथों में विस्तार पूर्वक मिल जाता है । इतने पर भी अनुभवी चिकित्सक द्वारा रोगी की विशेष स्थिति को देखते हुए उपचार का विशिष्ट निर्धारण करने की आवश्यकता बनी ही रहती है । यह चिकित्सक की स्वतंत्र सूझबूझ पर ही निर्भर है । इसके लिए कोई लक्ष्मण रेखा खिंच नहीं सकती, जिसके अनुसार चिकित्सक पर यह प्रतिबंध लगे कि वह अमुक स्थिति के रोगी का उपचार अमुक प्रकार करने के लिए प्रतिबंधित है ।

चिकित्सक की सूझ-बूझ को मौलिक कहा जा सकता है । ठीक इसी प्रकार छन्द को अनुभवी मार्ग दर्शक द्वारा किया गया इंगित कहा जा सकता है । साधना विधियों का वर्णन एक ही प्रक्रिया का अनेक प्रकार से हुआ है । उसमें से किस परिस्थिति में क्या उपयोग हो सकता है, इसकी बहुमुखी निर्धारण प्रज्ञा को ‘छन्द’ कह सकते हैं । ।

जो भी हो आज स्थिति यही है कि छन्द रूप में यह संकेत मौजूद हैं कि उपचार की दिशा-धारा क्या होनी चाहिए । यह सांकेतिक भाषा है । पारंगतों के लिए इस अंगुलि र्निदेश से भी काम चल सकता है और प्राचीन काल में चलता भी रहा है । पर आज की आवश्यकता यह है कि ‘गुरु परम्परा’ तक सीमित रहने वाली रहस्मयी विधि-व्यवस्था को अब सर्व सुलभ बनाया जाय । प्राचीनकाल में ऐसे प्रयोजन गोपनीय रखे जाते थे । आज भी अणु-विस्फोट जैसे प्रयोगों की विधियाँ गोपनीय ही रखी जा रही हैं । राजनैतिक रहस्यों के सम्बन्ध में भी अधिकारियों को गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती है । पर एक सीमा तक ही यह उचित है । ‘छन्द’ के सम्बन्ध में भी एक सीमा तक गोपनीयता बरती जा सकती है, फिर भी उसका उतना विस्तार तो होना ही चाहिए कि उसके लुप्त होने का खतरा न रहे । गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक स्वतंत्र छन्द स्वतंत्र साधना विधान है, जिसका संकेत-उल्लेख ‘गायत्री’ तंत्र में इस प्रकार मिलता है-

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप च बृहती पंक्तिरेव च । त्रिष्टुभं जगती चैव तथाऽतिजगती मता॥ शक्वर्यतिशक्वरी च धृतिश्चातिधृतिस्तथा । विराट् प्रस्तारपंक्तिश्च कृतिः प्रकृतिराकृतिः॥ विकृतिः संकृतिश्चैवाक्षरपंक्तिस्तथैव च॥ र्भूभुवः स्वरिति छन्दस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम् । इत्येतानि च छन्दासि कीर्तितानि महामुने॥ अर्थात्-हे नारद! गायत्री के २४ अक्षरों में २४ छन्द सन्निहित हैं- (१)गायत्री (२) उष्णिक (३) अनुष्टुप (४) वृहती (५) पंक्ति (६) त्रिष्टुप (७) जगती (८) अतिजगती (९) शक्वरी (१०) अतिशक्वरी (११) धृति (१२) अतिधृति (१३) विराट् (१४) प्रस्तार पंक्ति (१५) कृति (१६) प्रकृति (१७) आकृति (१८) विकृति (१९) संकृति (२०) अक्षर पंक्ति (२१) भूः (२२) भुवः (२३) स्वः (२४) ज्योतिष्मती ।

संक्षेप में ऋषि गुण हैं, देवता प्रभाव, छन्द को विधाता कह सकते हैं ।

गायत्री मन्त्र द्वारा प्राण-वायु का संचार

जिस प्रकार नाग के मस्तिष्क में मणि स्थित रहती है, उसी प्रकार मानव-मस्तिष्क के ललाट में भी विभूतियों से ओत-प्रोत मणि स्थित है । यह मणि प्राण-वायु के विशेष सञ्चार के प्रभाव से समस्त विभूतियों की किरणों से जगमगा उठती है ।गायत्री मन्त्र के साथ उसके प्रत्येक अक्षर के आधार पर निर्धारित देवियों के नामों का पाठ करने से सम्बन्धित नाड़ियों में प्राण-शक्ति का स्पन्दन प्रारम्भ हो जाता है, जिससे शरीरस्थ समस्त चक्रों की पँखुड़ियाँ प्रस्फुटित होती है । इसके साथ ही शरीर में प्राण-वायु का विशेष सञ्चार होने लगता है ।

प्रातः-काल, ठीक सूर्योदय के समय गायत्री-मन्त्र का जप करें । साथ ही चालीस नाड़ियों के नामों का पाठ करें । श्रद्धा और विश्वास के साथ ऐसा करने से कुछ ही दिनों में आप स्वयं अनुभव करेंगे कि आपके ललाट के भीतर स्थित मणि जगमगा उठी हैं । इससे आपके जीवन में नई स्फूर्ति और नई आशाओं का सञ्चार होगा । तब राजसी और तामसिक वृत्तियाँ शान्त होंगी ।

गायत्री मन्त्र का तीन बार उच्चारण करें -“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।”

ॐ – त्रिशक्त्यात्मक पर-ब्रह्म एवं परा-प्रकृति, भूः – पृथ्वी-लोक, भुवः – अन्तरिक्ष-लोक, स्वः – स्वर्ग-लोक, तत् – उस, सवितुः – सूर्य का, वरेण्यम् – श्रेष्ठ, भर्गः – तेज, देवस्य – देव का, धीमहि – हम ध्यान करते हैं, धियः – बुद्धियों (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को, यः – जो, नः – हमारी, प्रचोदयात् – प्रेरित करे (कल्याण के मार्ग पर) ।

उक्त गायत्री मन्त्र के ४० अक्षर और उनसे उद्भूत गायत्री-परक नाड़ियों के नामों के पाठ के लिए निम्न स्तोत्र का पाठ करें –

1 तत्त्वज्ञा ज्ञान-दात्री च, 2 तत्त्व-ज्ञान-प्रबोधिनी ।शास्त्रे ख्याता सदा वन्द्या, 3 सर्व-शास्त्रार्थ-वादिनी ।।विबुधेषे च विज्ञेया, 4 विबुधार्थ-स्वरुपिणी ।सर्वज्ञा सर्वदा देवी 5 तुर्या-मार्ग-प्रदर्शिनी ।।सनातना 6 रमा दिव्या, 7 वयोवस्था-विवर्जिता ।रेवायाः रम्य-तीर्थे च, 8 रेवा-तीर-निवासिनी ।।आगमैक-सदा रुपा, 9 निखिलागम-वेदिनी ।10 यमुना 11 मोक्षदा रम्या, 12 भक्ताभीष्ट-प्रदायिनी ।।भक्ताभीष्ट-प्रदा 13 रम्या, 14 गोवर्धन-विवर्धिनी ।शान्ति-प्रिया च विघ्नेशी, 15 देशोपद्रव-नाशिनी ।।वर-दात्री सर्वदा सा, 16 वक्र-तुण्ड-वर-प्रदा ।17 स्यन्द-रुपा 18 योग-गम्या, ज्ञान-विज्ञान-सौख्यदा ।।19 धीर-वन्द्या वन्दिता च, 20 महा-वैरि-विनाशिनी ।समग्रेषु च कार्येषु 21 हित-कर्म-फल-प्रदा ।।22 धिषणा 23 योधिनी सान्या, 24 योग-क्षेम-विहारिणी ।25 नव-सिद्धि-समाराध्या, 26 प्रभवा 27 रोग-शमनी ।।28 चोरघ्नी चोर-हन्त्री च, 29 दक्षिणामूर्ति-रुपिणी ।वन्द्या च वेद-माता सा, 30 यात्रा-पाप-विवर्जिता ।।स्तोतव्या छन्दसां माता, 31 तुरीय-पथ-गामिनी ।32 पर-ब्रह्मात्मिका ब्राह्मी 33 रागेशी, 34 रमणी-प्रिया ।।35 जगत्-प्रिया, 36 सेव्यमाना परमा 37 सागराम्बरा ।38 वेदाक्षर-परीतांगी, 39 दोहिनी 40 माधवी तथा ।।

गायत्री मंत्र में अनेकानेक तथ्यों को ढूँढ़ निकाला है और यह समझने-समझाने का प्रयतन किया है कि गायत्री मंत्र के २४ अक्षर में किन रहस्यों का समावेश है । उनके शोध निष्कर्षों में से कुछ इस प्रकार हैं-

(१) ब्रह्म-विज्ञान के २४ महाग्रंथ हैं । ४ वेद, ४ उपवेद, ४ ब्राह्मण, ६ दर्शन, ६ वेदाङ्ग । यह सब मिलाकर २४ होते हैं । तत्त्वज्ञों का ऐसा मत है कि गायत्री के २४ अक्षरों की व्याख्या के लिए उनका विस्तृत रहस्य समझाने के लिए इन शास्रों का निर्माण हुआ है ।

(२) हृदय को जीव का और ब्रह्मरंध्र को ईश्वर का स्थान माना गया है । हृदय से ब्रह्मरंध्र की दूरी २४ अंगुल है । इस दूरी को पार करने के लिए २४ कदम उठाने पड़ते हैं । २४ सद्गुण अपनाने पड़ते हैं- इन्हीं को २४ योग कहा गया है ।

(३) विराट् ब्रह्म का शरीर २४ अवयवों वाला है । मनुष्य शरीर के भी प्रधान अंग २४ ही हैं ।

(४) सूक्ष्म शरीर की शक्ति प्रवाहिकी नाड़ियों में २४ प्रधान हैं । ग्रीवा में ७, पीठ में १२, कमर में ५ इन सबको मेरुदण्ड के सुषुम्ना परिवार का अंग माना गया है ।

(५) गायत्री को अष्टसिद्धि और नवनिद्धियों की अधिष्ठात्री माना गया है । इन दोनों के समन्वय से शुभ गतियाँ प्राप्त होती हैं । यह २४ महान् लाभ गायत्री परिवार के अन्तर्गत आते हैं ।

(६) सांख्य दर्शन के अनुसार यह सारा सृष्टिक्रम २४ तत्त्वों के सहारे चलता है । उनका प्रतिनिधित्व गायत्री के २४ अक्षर करते हैं ।

‘योगी याज्ञवल्क्य’ नामक ग्रंथ में गायत्री की अक्षरों का विवरण दूसरी तरह लिखा है-

र्कम्मेन्दि्रयाणि पंचैव पंच बुद्धीन्दि्रयाणि च । पंच पंचेन्दि्रयार्थश्च भूतानाम् चैव पंचकम्॥ मनोबुद्धिस्तथात्याच अव्यक्तं च यदुत्तमम् । चतुर्विंशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणितु॥ प्रणवं पुरुषं बिद्धि र्सव्वगं पंचविशकम्॥

अर्थात्-(१) पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ (२)पाँच कर्मेन्दि्रयाँ (३) पाँच तत्त्व (४) पाँच तन्मात्राएँ । शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श । यह बीस हुए । इनके अतिरिक्त अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) यह चौबीस हो गये । परमात्म पुरुष इन सबसे ऊपर पच्चीसवाँ हैं ।

ऐसे-ऐसे अनेक कारण और आधार है, जिनसे गायत्री में २४ ही अक्षर क्यों हैं, इसका समाधान भी मिलता है । विश्व की महान् विशिष्टताओं के मिलते ही परिकर ऐसे हैं, जिनका जोड़ २४ बैठ जाता है । गायत्री मंत्र में उन परिकरों का प्रतिनिधित्व रहने की बात, इस महामंत्र में २४ की ही संख्या होने से, समाधान करने वाली प्रतीत हो सकती है ।

‘महाभारत’ का विशुद्ध स्वरूप प्राचीन काल में ‘भारत-संहिता’ के नाम से प्रख्यात था । उसमें २४००० श्लोक थे-”चतुर्विंशाति साहस्रीं चक्रे भारतम्” में उसी का उल्लेख है । इस प्रकार महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रचियताओं ने किसी न किसी रूप में गायत्री के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उसके प्रति किसी न किसी रूप में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है ।

वाल्मीकि रामायण में हर एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक अक्षर का सम्पुट है । श्रीमद् भागवत के बारे में भी यही बात है

गायत्री साधना से प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन
मनुष्य शरीर में विद्यमान चेतना का केन्द्र मस्तिष्क माना जाता है । शरीर का पोषण देने वाला रक्त संस्थान हृदय कहा गया है । हृदय को पेट से पोषण मिलता है । पेट में मुँह से खाना पहुँचता है और मुँह तक खाना पहुँचाने के साधन हाथ जुटाते हैं । इस प्रकार देखते हैं कि शरीर का प्रत्येक अंग अवयव लय-ताल से बँधे हुए होते हैं और यह भी सिद्ध हो जाता है कि पूरा शरीर ही शक्ति का भण्डार है । यह शक्ति असामान्य विद्युत स्तर की है ।

जिस विद्युत शक्ति से हमारा परिचय है, वह तो अच्छी दौड़ लगाती है, और जो भी कोई उसके सम्पर्क में आता है, उसे बिना कुछ सोचे-समझे गर्माती, तपाती और जलाती रहती है । लेकिन मनुष्य शरीर में विद्यमान विद्युत शक्ति को इसीलिए असामान्य कहा गया है कि वह शरीर की परिस्थितियों को देख कर ही अपनी गतिविधियाँ फैलाती और सिकोड़ती है ।

मानवी विद्युत हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट सम्पत्ति है । वह इसी के आधार पर ऐसे अनुदान देता है, ऐसे आदान-प्रदान करता है जो पैसे या किसी वस्तु के आधार पर उपलब्ध नहीं हो सकते । एक व्यक्ति से दूसरा प्रभाव ग्रहण करता है, यह तथ्य सर्वविदित है, संगति की महिमा गाई गई है । कुसंग के दुष्परिणाम और सत्संग के सत्परिणामों को सिद्ध करने वाले उदाहरण हर जगह पाये जाते हैं । यह प्रभाव मात्र वार्त्तालाप व्यवहार, लोभ या दबाव से उतना नहीं पड़ता जितना मनुष्य के शरीर में रहने वाली बिजली के आदान-प्रदान से सम्भव होता है ।

ताप और बिजली का गुण है कि जहाँ अनुकूलता होती है, वह वहाँ अपना विस्तार करती और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है । प्राणवान् शक्तिशाली व्यक्तित्व अपने से दुर्बलों को प्रभावित करते हैं । यों दुर्बल भी अपनी न्यूनता के कारण समर्थों में सहज करुणा उत्पन्न करते हैं, और उन्हें कुछ देने के लिए विवश करते हैं । बच्चे को देखकर माता की छाती से दूध उतरने लगता है मन हुलसने लगता है ।

इस प्रकार शक्तिवान अपने से दुर्बलों को अनुदान देकर घाटे में नहीं रहते । उदारता-जन्य आत्म-संतोष से उनकी क्षति-पूर्ति भी हो जाती है । दूध पिलाने में माता को प्रत्यक्षता घाटा ही है, पर वात्सल्य-जन्य तृप्ति से उसकी भावनात्मक पूर्ति हो जाती है ।

मनुष्य को एक अच्छा खासा चुम्बक कहें तो कुछ अत्युक्ति न होगी । चुम्बक का कार्य है आकर्षण । वह अपनी कला द्वारा अन्य लोहे के पदार्थों को आकर्षित करता है । उनको अपना जैसा बनाने का प्रयत्न करता है । एक और विशेषता चुम्बक की है कि उसे यदि टुकड़ों-टुकड़ों में भी विभक्त कर दिया जाय तो हर टुकड़े की वही विशेषता बनी रहेगी ।

एक टुकड़े को एक धागे में बाँधकर यदि अधर में लटकाया जाय तो इसके दोनों सिरे क्रमशः उत्तर-दक्षिण की तरफ ही रहेंगे । चाहे जैसी परिस्थिति आ जाय अपनी दिशा नहीं बदलेंगे । स्थिरता आ जाय अपनी दिशा नहीं बदलेंगे । स्थिरता का सहज गुण चुम्बक में है । इसलिए जलयानों या वायुयानों में ‘कम्पास’ के सहारे ही दिशा-ज्ञान का बोध होता है ।

यह सारे लक्षण मनुष्य में भी पाये जाते हैं, यदि मन की प्रवृत्तियाँ सही ढंग से कार्य कर रही हों तो एक महान् व्यक्ति बना जा सकता है । ठीक चुम्बक की तरह की सारी विशेषताएँ विकसित भी की जा सकती हैं । महान् व्यक्तित्त्व में इतना आकर्षण होता है कि वे जिस स्थान पर खड़े हो जाते हैं लोग अपने आप उनके चारों ओर एकत्रित हो जाते हैं चुम्बक की दूसरी विशेषता ”एक रसता” की है । वह चाहे कितना विखंडित क्यों न हो जाय, उसकी आकर्षण शक्ति कम नहीं होती । महान् मनुष्य ऐसे ही होते हैं । वे बाह्य रूप से चाहे जितने छोटे हो जाएँ, परन्तु उनकी महानता में कोई अन्तर नहीं आता है । उनका व्यक्तित्व खण्डित नहीं होता है । वे अनेकों लोगों से एक साथ सम्बंध रखते हैं, परन्तु उनके व्यक्तित्व में अपने पराये का पक्षपात का कोई अन्तर नहीं आता । एक सूर्य अनेक घड़ों के जल में एक रूप ही दिखाई देता है ।

चुम्बक की तीसरी विशेषता है दिशा के प्रति स्थिरता । इसके द्वारा सदैव ही उत्तर एवं दक्षिण दिशा का ज्ञान होता रहेगा, आप चाहे जहाँ चले जायें आकाश में या समुद्र में कम्पास आपको दिशा ज्ञान अवश्यक ही करायेगा । वही स्थिति विकसित व्यक्ति की भी होती है । यदि सद्प्रवृत्तियाँ जगा ली गई है, भावना एवं व्यक्तित्व का परिष्कार कर लिया गया है तथा उद्देश्य को गम्भीरता से ग्रहण करने की शक्ति पैदा कर ली गई है तो यह निश्चित है कि मनुष्य अपनी दिशा से कभी हिल नहीं सकता है । दूसरों को सही प्रेरणा प्रदान करने का काम भी तो चुम्बक के गुण की तरह ही है ।

बड़ी से बड़ी विशेषताओं एवं महान् गुणों से युक्त मनुष्य भी पतित क्रियाओं एवं विचारणाओं को अपनाने से गर्त में गिर जाता है और अपनी समस्त विशेषताएँ धीरे-धीरे खो देता है । ठीक इसी तरह जैसे चुम्बक को बार-बार पटकने तथा ऊपर नीचे करने से उसकी आकर्षण शक्ति लुप्त हो जाती है, महान् पुरुषों की भी पुण्य की पूँजी एवं प्रभाव उनके पतन के गर्त में गिरने से नष्ट हो जाते हैं ।

धरती की चुम्बकीय शक्ति की तरह मनुष्य में भी एक सहज आकर्षण शक्ति विद्यमान है, उसका प्रयोग करके समर्थता एवं साधन सम्पन्नता प्राप्त की जा सकती है । मनुष्य यदि अपने चुम्बकत्व का प्रयोग करे तो उसे भी वैसे ही पुराण-वर्णित चमत्कार प्रस्तुत करने का अधिकार मिल सकता है । यदि तप, साधन के द्वारा आत्मबल को बढ़ा लिया जाय तो हम आज से हजारों वर्ष पहले घटित घटनाओं को भी यथार्थ रूप से आकाश मण्डल में सुन या देख सकते हैं । विज्ञान से तो अब यह सिद्ध हो चुका है कि जो भी ध्वनियाँ निसृत होती हैं वे कभी भी नष्ट नहीं होती ।

अपनी इस पृथ्वी के चतुर्दिक एक चुम्बकीय क्षेत्र व्याप्त है, उसी के सहारे वह समस्त ब्रह्माण्ड में फैली हुई तमाम आवश्यक विशेषताओं को इकट्ठी करती रहती है, यदि इस स्रोत से उसे यह अनुदान प्राप्त न होता तो उसका अक्षय भण्डार एक दिन अवश्यक समाप्त हो जाता है और साधन सम्पन्न कही जाने वाली धरती विपन्न एवं दीन की स्थिति में पहुँच जाती ।

मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमता में वह चुम्बकत्व विद्यमान है, जिसके द्वारा असम्भाव्य कार्यों को भी कर सकता है । आँखों से न देख पाने वाले स्थानों का वर्तमान में घटित होने वाली घटनाओं का सत्रिण वर्णन कर सकता है । एक स्थान से दूसरे स्थान को परस्पर सम्वादों का आदान-प्रदान कर सकता है । इसके अतिरिक्त यदि हमने तप, साधना द्वारा प्रेरक क्षमता अर्जित कर ली है तो किसी दूसरे को प्रेरित कर लाभ पहुँचाया जा सकता है ।

जड़ अणुओं की गति एक प्रकार की विधुत उत्पन्न करती है, उसमें जब चेतन सत्ता का समावेश होता है तो जीवन का जीवधारियों का आविर्भाव होता है । ध्रुवों के क्षेत्र में चुम्बकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश ‘अरोरा बोरीलिस,’ तेजोबलय के रूप में छाया रहता है । इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों का मिलन स्पन्दन कह सकते हैं । यही है वह पृथ्वी के साथ प्रणय परिचय जिसके फलस्वरूप कुन्ती के पाँच पुत्रों की तरह पाँच विविध-विधि हलचले जन्म लेती हैं और उनके क्रिया-कलाप एक से एक बढ़ कर अद्भुत और शक्तिशाली बने हुए सामने आते रहते हैं ।

समुद्र का खारा जल जब धातु विनिर्मित नौकाओं तथा जलयानों से टकराता है तो उससे विद्युत तरंगे उत्पन्न होती हैं । नौका विज्ञानी इस अनायास होते रहने वाले विद्युत उत्पादन से परिचित रहते हैं और उसकी हानिकारक लाभदायक प्रतिक्रिया से सतर्क रहते हैं ।

शरीरगत जीवाणु भी इसी प्रकार ईथर एवं वायुमण्डल में भरे विद्युत प्रवाह से टकराते रहते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होते हैं । जीव कोषों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर सकें । यही कारण है कि हर मनुष्य में गर्मी ही नहीं रहती, वरन् विद्युत प्रवाह की अनके धाराएँ भी बहती हैं । इन्हें यन्त्रों द्वारा भी भली-भाँति देखा, परखा और जाना सकता है । मानवीय चुम्बक अंतरिक्ष में बरसने वाले अनके भले-बुरे अनुदानों को अपनी आंतरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार या अस्वीकार करता है । वह जैसा कुछ स्वयं है उसी का चुम्बकत्व उसे इस विश्व ब्रह्माण्ड में अपनी जैसी सूक्ष्म धारा प्रवाह से अनायास ही सम्पन्न सज्जित करता रहता है ।

प्राणिज विद्युत का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार नैतिक विद्युत का आधार और क्रियाकलाप भौतिक बिजली से भिन्न है । वे प्रणिज विद्युत में इच्छा और बुद्धि का समिश्रण भी मानते हैं भले ही वह कितना ही झरना क्यों न हो? इसी प्रवाह के कारण प्राणिज विद्युत अपने-अपने क्षेत्र में विशेष परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना करती है, प्रायः चुम्बकत्व पदार्थ में से अपने उपयोगी भाग खींचता है, उसे अपने ढाँचे में ढालता है और इस योग्य बनाता है कि चेतना के स्वर में अपना ताल बजा सके ।

किस प्राणी के डिम्ब से किस आकृति प्रकृति का जीव उत्पन्न हो, इसका निर्धारण माप रासायनिक संरचना के आधार पर नहीं हो जाता, वरन् यह निर्धारण रज और शुक्र कीटों के अन्दर भरी हुई चेतना के द्वारा होता है । इसी चुम्बकत्व में विशिष्ट स्तर के प्राणियों की आकृति एवं प्रकृति ढलना शुरु हो जाती है । यदि ऐसा न होता तो संसार में पाये जाने वाले समस्त प्राणी प्रायः एक ही जैसी आकृति के उत्पन्न होते क्योंकि अणुओं का स्तर प्रायः एक ही वर्ग का है । उनके जो रासायनिक अन्तर हैं इसके आधार पर कोटि-कोटि वर्ग के प्राणी उत्पन्न होने और उनकी वंश परम्परा चलते रहने की गुंजाइश नहीं है ।

अधिक से अधिक इतना हो सकता था जिक कुछ थोड़ी-सी कुछ थोड़े से अन्तर की जीव जातियाँ इस संसार में दिखाई पड़तीं । वंश परम्परा और जीव विज्ञान का जो स्वरूप सामने हैं उसमें प्राणि चुम्बकत्व की अपनी विशिष्ट भूमिका है ।

इसे दूसरे शब्दों में विद्युत भण्डार कह सकते हैं । भोजन, रक्त, माँस, अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अंततःइसी संस्थान में जा कर ऊर्जा ही प्राण कहलाती है । कायकलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी का ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना विश्व प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है । इन दोनों के बीच बिंदु-सिन्धु का अंतर रहते हुए भी ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं । कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हों तो महाप्राण का अस्तित्व न बने । इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता को हो तो भोजन पाचन आदि का आधार का संचार भी सम्भव न हो ।

यदि मानवी विद्युत तेजस्विता, ओजस्विता, प्रभावशाली के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है । उर्ध्व रेता, संयमी, ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रिरत करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं । विद्वान दार्शनिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी, जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के सम्बंध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस् का प्राण तत्त्व अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है । योग-साधना का उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना ही है । इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं । संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं ।

गायत्री साधना इस मानवी विद्युत भण्डार को असाधारण रूप में उत्तेजित करती और उभारती है । यदि सही ढंग से साधना की जाय तो मनुष्य प्राणवान् और ओजस्वी बनता है तथा उपार्जित प्राण ऊर्जा की विद्युत के सहारे स्वयं कितनी भी सफलताएँ अर्जित करता है और अन्य दूसरों को भी लाभ पहुँचाता रह सकता है ।
गायत्री मन्त्र का वैज्ञानिक आधार
गायत्री मन्त्र का अर्थ है उस परम सत्ता की महानता की स्तुति जिसने इस ब्रह्माण्ड को रचा है । यह मन्त्र उस ईश्वरीय सत्ता की स्तुति है जो इस संसार में ज्ञान और और जीवन का स्त्रोत है, जो अँधेरे से प्रकाश का पथ दिखाती है । गायत्री मंत्र लोकप्रिय यूनिवर्सल मंत्र के रूप में जाना जाता है. के रूप में मंत्र किसी भी धर्म या एक देश के लिए नहीं है, यह पूरे ब्रह्मांड के अंतर्गत आता है। यह अज्ञान को हटा कर ज्ञान प्राप्ति की स्तुति है । मन्त्र विज्ञान के ज्ञाता अच्छी तरह से जानते हैं कि शब्द, मुख के विभिन्न अंगों जैसे जिह्वा, गला, दांत, होठ और जिह्वा के मूलाधार की सहायता से उच्चारित होते हैं । शब्द उच्चारण के समय मुख की सूक्ष्म ग्रंथियों और तंत्रिकाओं में खिंचाव उत्पन्न होता है जो शरीर के विभिन्न अंगों से जुडी हुई हैं । योगी इस बात को भली प्रकार से जानते हैं कि मानव शरीर में संकड़ों दृश्य -अदृश्य ग्रंथियां होती है जिनमे अलग अलग प्रकार की अपरिमित उर्जा छिपी है । अतः मुख से उच्चारित हर अच्छे और बुरा शब्द का प्रभाव अपने ही शरीर पर पड़ता है । पवित्र वैदिक मंत्रो को मनुष्य के आत्मोत्थान के लिए इन्ही नाड़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार रचा गया है । आर्य समाज का प्रचलित गायत्री मन्त्र है ” ॐ भूर्भुव: स्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्”.
शरीर में षट्चक्र हैं जो सात उर्जा बिंदु हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहद चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार चक्र ये सभी सुषुम्ना नाड़ी से जुड़े हुए है । गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं जो शरीर की २४ अलग अलग ग्रंथियों को प्रभावित करते हैं और व्यक्ति का दिव्य प्रकाश से एकाकार होता है । गायत्री मन्त्र के उच्चारण से मानव शरीर के २४ बिन्दुओं पर एक सितार का सा कम्पन होता है जिनसे उत्पन्न ध्वनी तरंगे ब्रह्माण्ड में जाकर पुनः हमारे शरीर में लौटती है जिसका सुप्रभाव और अनुभूति दिव्य व अलौकिक है। ॐ की शब्द ध्वनी को ब्रह्म माना गया है । ॐ के उच्च्यारण की ध्वनी तरंगे संसार को, एवं ३ अन्य तरंगे सत, रज और तमोगुण क्रमशः ह्रीं श्रीं और क्लीं पर अपना प्रभाव डालती है इसके बाद इन तरंगों की कई गूढ़ शाखाये और उपशाखाएँ है जिन्हें बीज-मन्त्र कहते है ।

गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों का संयोजन और रचना सकारात्मक उर्जा और परम प्रभु को मानव शरीर से जोड़ने और आत्मा की शुद्धि और बल के लिए रचा गया है । गायत्री मन्त्र से निकली तरंगे ब्रह्माण्ड में जाकर बहुत से दिव्य और शक्तिशाली अणुओं और तत्वों को आकर्षित करके जोड़ देती हैं और फिर पुनः अपने उदगम पे लौट आती है जिससे मानव शरीर दिव्यता और परलौकिक सुख से भर जाता है । मन्त्र इस प्रकार ब्रह्माण्ड और मानव के मन को शुद्ध करते हैं। दिव्य गायत्री मन्त्र की वैदिक स्वर रचना के प्रभाव से जीवन में स्थायी सुख मिलता है और संसार में असुरी शक्तियों का विनाश होने लगता है । गायत्री मन्त्र जाप से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है । गायत्री मन्त्र से जब आध्यात्मिक और आतंरिक शक्तियों का संवर्धन होता है तो जीवन की समस्याए सुलझने लगती है वह सरल होने लगता है । हमारे शरीर में सात चक्र और 72000 नाड़ियाँ है, हर एक नाडी मुख से जुडी हुई है और मुख से निकला हुआ हर शब्द इन नाड़ियों पर प्रभाव डालता है । अतः आइये हम सब मिलकर वैदिक मंत्रो का उच्चारण करें .. उन्हें समझें और वेद विज्ञान को जाने । भारत वर्ष का नव-उत्कर्ष सुनिश्चित करें । गायत्री मंत्र ऋग्वेद के छंद ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’ 3.62.10 और यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः से मिलकर बना है।


विशेस  टिप्पड़ी- 
पवित्र और श्रेष्ठ ध्वनी तरंगो के व्यापक प्रभाव को समझने के लिए भारतीय शास्त्रीय संगीत की और दृष्टि डालकर देखिये वेदमंत्रो का महत्त्व और भी स्पष्ट हो जायेगा ! राग मल्हार से जहाँ बारिश हो जाया करती थी तो राग दीपक से दीप प्रज्वलित हो जाते थे ..! वेद मन्त्रों की ध्वनी तरंगों से मनुष्य के भीतर की अथाह शक्ति प्रज्वलित होती है और सबसे बड़ी बात की ये सर्व-मंगलकारी और सार्वभौमिक मन्त्र है ! ये सिर्फ धार्मिक नहीं बल्कि शुद्ध वैज्ञानिक मन्त्र हैं !

सुनील भगत

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