शनिवार, 26 सितंबर 2015

चेचक व् उसका उपचार


चेचक :
चेचक मानव में पाया जाने वाला एक प्रमुख रोग है। इस रोग से अधिकांशत: छोटे बच्चे ग्रसित होते हैं। यह रोग जब किसी व्यक्ति को होता है, तब इसे ठीक होने में 10 से 15 दिन लग जाते हैं। किंतु रोग के कारण चेहरे आदि पर जो दाग़ पड़ जाते हैं, उन्हें ठीक होने में लगभग पाँच या छ: महीने का समय लग जाता है। यह रोग अधिकतर बसन्त ऋतु या फिर ग्रीष्म काल में होता है। यदि इस रोग का उपचार जल्दी ही न किया जाए तो रोग से पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।

कारण:

चेचक के रोग को घरेलू भाषा में 'माता' या 'शीतला' भी कहते हैं। यह रोग अक्सर उन बच्चों को होता है, जिनके शरीर में शुरू से ही गर्मी अधिक होती है तथा उनकी उम्र दो से चार वर्ष तक की होती है। कभी-कभी यह रोग औरतों और बड़ों में भी हो जाता है। इस रोग के फैलने का कारण वायरस (जीवाणु) हैं। इस रोग के जीवाणु थूक, मलमूत्र और नाखूनों आदि में पाये जाते हैं। सूक्ष्म छोटे-छोटे जीवाणु हवा में घुल जाते हैं और श्वसन के समय ये जीवाणु शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। इस रोग को आयुर्वेद में 'मसूरिका' के नाम से जाना जाता है।

रोग के लक्षण:

इस रोग के हो जाने पर शरीर का तापमान बढ़ जाता है। बुखार 104 डिग्री फारेनहाइट तक हो जाता है। रोगी को बेचैनी होने लगती है। उसे बहुत ज़्यादा प्यास लगती है और पूरे शरीर में दर्द होने लगता है। हृदय की धड़कन तेज हो जाती है और साथ में जुकाम भी हो जाता है। दो-तीन दिन के बाद बुखार तेज होने लगता है। शरीर पर लाल रंग के दाने निकलने लगते हैं। दानों में पानी जैसा मवाद पैदा हो जाता है। सात दिनों में दाने पकने लगते हैं जो कि धीरे-धीरे सूख जाते हैं। दानों पर खुरण्ड (पपड़ी) सी जम जाती है। कुछ दिनों के बाद खुरण्ड तो निकल जाती है, लेकिन उसके दाग़ रह जाते हैं।

भोजन तथा परहेज:

  1. छोटे बच्चों को चेचक होने पर दूध, मूंग की दाल, रोटी और हरी सब्जियाँ तथा मौसमी फल खिलाने चाहिए या उनका जूस पिलाना चाहिए।
  2. चेचक के रोग से ग्रस्त रोगी के घर वालों को खाना बनाते समय सब्जी आदि में छोंका नहीं लगाना चाहिए।
  3. रोगी को तली हुई चीजें, मिर्च-मसाले वाला भोजन और ज़्यादा ठंड़ी या ज़्यादा गर्म चीजें नहीं देनी चाहिए।
  4. अगर बुखार तेज हो तो दूध और चाय के अलावा रोगी को कुछ नहीं देना चाहिए।
  5. दरवाज़े पर नीम के पत्तों की टहनी लटका देनी चाहिए।


6.      ध्यान रखें कि बच्चा शरीर पर आए छालों या फोड़े को खरोंचे नहीं, वरना ये व फैल सकते है व दर्द भी हो सकता है। बच्चे के नाखून छोटे रखें व फोड़ों को ढंके नहीं।
रोगी के चारो तरफ साफ़ सफाई का विशेष ध्यान रखे।
रोगी को जब भी नहलाये, उस पानी में नीम की पत्तियों को उबाले।
आयुर्वेद में चेचक में नीम से ज़्यादा किसी पर भी भरोसा नहीं किया जाता।
बच्चे को अन्य लोगों से दूर रखें।


7.      चेचक के रामबाण घरेलु उपाय।
पीपल की 3 या 5 पत्तिया ले, पत्तियों की डंडी तोड़ दे, इन पत्तो को १ गिलास पानी में उबाले और एक चौथाई रहने पर इस को गुनगुना ही रोगी को पिलाये। ये प्रयोग 3 से 5 दिन तक हर रोज़ सुबह और शाम को करे। इस से चेचक, टाईफ़ाएड, और खसरा और आम बुखार में बेहद लाभ मिलता हैं।


8.      एक दूसरा घरेलु नुस्खा भी प्रयोग करे ।
तुलसी की 12-15 पत्तियों को 3 या 4 काली मिर्च के साथ पीसकर गुनगुने पानी के साथ दिन में 2 बार पिलाये।

सुनील भगत






सोमवार, 21 सितंबर 2015

तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है तथा प्रमाणित सद्ग्रन्थों में कहाँ प्रमाण है

प्रश्न:– तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है तथा प्रमाणित सद्ग्रन्थों में कहाँ प्रमाण है? आपका ज्ञान आत्मा के आर-पार हो रहा है। गीता का शब्दा-शब्द यथार्थ भावार्थ आप जी के मुख कमल से सुनकर युगों की प्यासी आत्मा कुछ तृप्त हो रही है, गद्गद् हो रही है।
उत्तर: लक्षण तत्वदर्शी सन्त अर्थात् पूर्ण ज्ञानी सत्गुरु के:-
गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्रा को ज्ञाना (ज्ञाता)। दूजे हरि भक्ति मन कर्म बानी, तीसरे समदृष्टि कर जानी। चैथे वेद विधि सब कर्मा, यह चार गुरु गुण जानो मर्मा।
भावार्थः– जो तत्वदर्शी सन्त (पूर्ण सतगुरु) होगा उसमें चार मुख्य गुण होते हैं:-
1. वह वेदों तथा अन्य सभी ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञानी होता है।
2. दूसरे वह परमात्मा की भक्ति मन-कर्म-वचन से स्वयं करता है, केवल वक्ता-वक्ता नहीं होता, उसकी करणी और कथनी में अन्तर नहीं होता।
3. वह सर्व अनुयाईयों को समान दृष्टि से देखता है। ऊँच-नीच का भेद नहीं करता।
4. चैथे वह सर्व भक्तिकर्म वेदों के अनुसार करता तथा कराता है अर्थात् शास्त्रानुकूल भक्ति साधना करता तथा कराता है। यह ऊपर का प्रमाण तो सूक्ष्म वेद में है जो परमेश्वर ने अपने मुखकमल से बोला है। अब आप जी को श्रीमद्भगवत गीता में प्रमाण दिखाते हैं कि तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान बताई है?
श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में स्पष्ट हैः-
ऊर्धव मूलम् अधः शाखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम्।
छन्दासि यस्य प्रणानि, यः तम् वेद सः वेदवित् ।।
अनुवाद: ऊपर को मूल (जड़) वाला, नीचे को तीनों गुण रुपी शाखा वाला उल्टा लटका हुआ संसार रुपी पीपल का वृक्ष जानो, इसे अविनाशी कहते हैं क्योंकि उत्पत्ति-प्रलय चक्र सदा चलता रहता है जिस कारण से इसे अविनाशी कहा है। इस संसार रुपी वृक्ष के पत्ते आदि छन्द हैं अर्थात् भाग (च्ंतजे) हैं। (य तम् वेद) जो इस संसार रुपी वृक्ष के सर्वभागों को तत्व से जानता है, (सः) वह (वेदवित्) वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात् वह तत्वदर्शी सन्त है। जैसा कि गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि परम अक्षर ब्रह्म स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से तत्वज्ञान विस्तार से बोलते हैं। परमेश्वर ने अपनी वाणी में अर्थात् तत्वज्ञान में बताया हैः-
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, क्षर पुरुष वाकि डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।
भावार्थ:– जमीन से बाहर जो वृक्ष का हिस्सा है, उसे तना कहते हैं। तना तो जानों अक्षर पुरुष, तने से कई मोटी डार निकलती हैं। उनमें से एक मोटी डार जानों क्षर पुरुष। उस डार से तीन शाखा निकलती हैं, उनको जानों तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव-शंकर जी) और इन शाखाओं को पत्ते लगते हैं, उन पत्तों को संसार जानो।
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में सांकेतिक विवरण है। तत्वज्ञान में विस्तार से कहा गया है। पहले गीता ज्ञान के आधार से ही जानते हैं।
गीता अध्याय 15 श्लोक 2 में कहते हैं कि संसार रुपी वृक्ष की तीनों गुण (रजगुण ब्रह्माजी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शंकर जी) रुपी शाखाएं है। ये ऊपर (स्वर्ग लोक में) तथा नीचे (पाताल लोक) फैली हुई हैं।
नोट:– रजगुण ब्रह्मा, सत्गुण विष्णु तथा तमगुण शंकर हैं। देखें प्रमाण प्रश्न नं. 5 में। तीनों शाखाएं ऊपर-नीचे फैली हैं, का तात्पर्य है कि गीता का ज्ञान पृथ्वी लोक पर बोला जा रहा था। तीनों देवता की सत्ता तीन लोकों में है। 1. पृथ्वी लोक, 2. स्वर्ग लोक तथा 3. पाताल लोक। ये तीन मन्त्राी हैं, एक-एक विभाग के मन्त्राी हैं। रजगुण विभाग के श्री ब्रह्मा जी, सतगुण विभाग के श्री विष्णु जी तथा तमगुण विभाग के श्री शिव जी।
गीता अध्याय 15 श्लोक 3 में कहा है कि हे अर्जुन! इस संसार रुपी वृक्ष का स्वरुप जैसे यहाँ (विचार काल में) अर्थात् तेरे और मेरे गीता के ज्ञान की चर्चा में नहीं पाया जाता अर्थात् मैं नहीं बता पाऊँगा क्योंकि इसके आदि और अन्त का मुझे अच्छी तरह ज्ञान नहीं है। इसलिए इस अतिदृढ़ मूल वाले अर्थात् जिस संसार रुपी वृक्ष की मूल है, वह परमात्मा भी अविनाशी है तथा उनका स्थान सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अकह लोक, ये चार ऊपर के लोक भी अविनाशी हैं। इन चारों में एक ही परमात्मा भिन्न-भिन्न रुप बनाकर सिंहासन पर विराजमान हैं। इसलिए इसको ‘‘सुदृढ़मूलम्’’ अति दृढ़ मूल वाला कहा है, इसे तत्वज्ञान रुपी शस्त्रा से काटकर अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान समझकर।
फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद अर्थात् सत्यलोक की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व संसार की रचना की है। उसी परमेश्वर की भक्ति को पहले तत्वदर्शी सन्त से समझो! गीता ज्ञान दाता अपनी भक्ति को भी मना कर रहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन प्रभु बताये हैं। क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष ये दोनों नाशवान हैं। तीसरा परम अक्षर पुरुष है जो संसार रुपी वृक्ष का मूल (जड़) है। वह वास्तव में अविनाशी है। जड़ (मूल) से ही वृक्ष के सर्व भागों ‘‘तना, डार-शाखाओं तथा पत्तों‘‘ को आहार प्राप्त होता है। वह परम अक्षर पुरुष ही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। उसी (मूल) मालिक की पूजा करनी चाहिए। इस विवरण में तत्वदर्शी सन्त की पहचान तथा गीता ज्ञान दाता की अल्पज्ञता अर्थात् तत्वज्ञानहीनता स्पष्ट है।
सुनील भगत 

शनिवार, 19 सितंबर 2015

ध्यान, योग , साधना और उपासना का ज्ञान

। ध्यान।। 
ध्यान वो जो ''आत्मा'' और ''परमात्मा'' के बीच दूरी समाप्त कर सके....ध्यान वो जो जीवों को दिव्य धारणा प्रदान कर सकें...ध्यान वो जो वाह्य जगत से अन्दर की ओर प्रवेश करा सकें...ध्यान ''परमात्मा'' और ''आत्मा'' के बीच में आंशिक रूप से भी जगत प्रवेश न कर सकें।।

योग।।  
''आत्मा'' और ''परमात्मा'' का मिलन योग...''जीव'' और ''ब्रह्म'' का एक होना योग...योग ''शिष्य'' का पूर्णतः ''गुरु'' में समाहित हो संसार में रहते संसार से पार हो, ''प्रभु'' को प्राप्त करना।

!! साधना !! 
साधना का अभिप्राय अपने तन-मन-प्राण स्वांस, ज्ञानेन्द्रिय इन सभी को अपने बस में कर जीवन को गतिशील करना...साधना ''स्व'' को अपने में साध लेना...साधना ''''गुरु' '' को बोध करानें का पहला चरण.......
यदि कोई साधक सच्चे मन से अपने आपको, अपने तन-मन, स्वांस और प्राण को, अपने ज्ञानेन्द्रियों को भली-भांति साध लेता है, वही ध्यान के माध्यम से योग में उतर ''गुरु'' को अर्थात ''परमात्मा'' को प्राप्त कर पाता है.. 

!! उपासना !!
''साधना'' पहला चरण, ''ध्यान'' दूसरा चरण और ''योग'' तीसरा चरण ,फिर इसके बाद चौथा चरण आता है ''उपासना'' का...और फिर ''शक्ति-चैतन्य''...''तटस्थ'' का पूर्णतः जीव में समावेश और पूर्णतः आनंदमय होकर, पूर्णता के साथ संसार और प्रभु को जीते, संसार सागर में रहते हुए संसार से पार...पर जीवों को ''उपलब्धि'', ''पूर्णता'' का आभास तभी हो सकता है, जब जीव इन चरणों में समर्पण करे ......
साधना, ध्यान, योग, उपासना और परमात्मा को नाम से हर जीव जनता है...पर उसे कैसे जाना जायें ..? उस ''परम-सत्ता'' को कैसे पिया जायें..? कैसे अपने रोम-रोम में बसाया जायें ..? और कैसे उस ''परम-प्रभु'' में पूर्णतः विलीन हो जीवन को गतिशील किया जायें ..?
ये युक्ति जीव साधारणतः नहीं जान पाता है, इसके लिए ''सदगुरु'', की आवश्यकता हर जीव को हर योनियों में होती है...कही-कही भावना प्रबल होती है...प्रार्थना, दिव्यता और पवित्रता को धारण किये रहती है तो''सदगुरु'' स्वयं ह्रदय में स्थापित हो जीव को जाग्रत कर अपना बोध करा देता है...पर यह ''परमात्मा'' का स्वरुप अति ही सरल पर दुर्लभ है...इसलिए ''परमात्मा'' किसी न किसी मानव के रूप में, इस पृथ्वी पर आ मानव को कई-कई युक्तियों के माध्यम से अपनी ओर गतिशील करता है.......

और निश्चित ही साधकों को ''पूर्णता'' प्राप्त हो जाती है , किन्तु साधक में ''श्रद्धा'', ''भाव'', ''समर्पण'' और ''विश्वास'' का समावेश होना जरुरी होता है.

सुनील भगत 

अनाहत नाद क्या हैं और इसको कैसे सुना जाये ?

प्रश्न :- अनाहत नाद क्या हैं और इसको कैसे सुना जाये ?
उत्तर :- अनाहत नाद न ॐकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है, ये अंतरिक्ष में सदा से ही विधमान हैं जो बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द है।
अनहद नाद शुरुवात में सुनने का उपाय > एकांत में ध्वनिरहित, अंधकारयुक्त, स्थान पर बैठें। तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करें, आँखें बंद रखें कुछ ही दिनों के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं, यह शब्द या ध्वनि या अनाहत नाद हैं, इसको सुनने का अभ्यास करना है।
यह नौ प्रकार की होती है

१. घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, शरीर भाव को धीरे धीरे नस्ट कर के व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है।

२. कांस्य नाद :- यह नाद जड़ भाव नस्ट कर के चेतन भाव की तरफ साधक को लेजाता हैं।

३. श्रृंग नाद :- यह नाद जब सुनाई देता हैं तब साधक की वासनाएं और इच्छाए नस्ट होने लगती हैं।

४. घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात शिव करते हैं, यह साधक को वैराग्य भाव की तरफ लेजाती हैं।

५. वीणा नाद :- यहाँ इस नाद को जब साधक सुनता हैं तब मन के पार की झलक का पता चलता हैं ।

६. वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्व के ज्ञान का अनुभव होता हैं।

७. दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है।

८. शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से स्वम् का निराकार भाव प्राप्त होता हैं।

९. मेघनाद :- जब ये सुनाई दे तब मन के पार की अवस्था का अनुभव होता हैं, जहा शुन्य भाव प्राप्त होता हैं।
इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है, तुंकार का ध्यान करने से
साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है। शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम शिवोहम।


सुनील भगत 

रामतारक मंत्र:

इस महामंत्र को मंत्रराज तथा महामंत्र उपधितन प्राप्त हैं ! इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति साकेत लोक प्राप्त करता है ! यह मंत्र श्री राम से प्रारंभ होने वाली गुरु परंपरा से चलता आ रहा है ! श्री राम इसके अद्धिष्ठाता देव हैं ! यह श्री वैष्णव संप्रदाय का मंत्र है जिसके परम आचार्य श्री जगद्गुरु रामनान्दचार्य रहें है !


मंत्र: ----रां रामाय नमः !!


राम जी ने यह महामंत्र  सीता जी को दिया, सीताजी ने हनुमान को, हनुमान  नें ब्रह्मा जी को, ब्रह्मा नें वाशिष्ट, वाशिस्ट नें पराशर को, व्यास, शुकदेव  से होती हुए इसमें जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने स्वामी राघवानंद से मंत्र दीक्षा स्वीकार की
                 
रामानान्दः स्वयम रामः प्रादुर्भूतो महीतले
अर्थात रामानंदाचार्य स्वयं श्री पूर्ण पुरुषोत्तम राम जी के अवतार थे !  ब्रह्माण्ड के द्वादश आचार्य  रामानंद के शिष्य के रूपा में अवतरित हुए तथा इस संप्रदाय का चतुर्दिक विकास किया !

 
नोट: यह मंत्र अपना प्रभाव केवल गुरु द्वारा प्राप्त हो तभी कार्य करती है।  वो भी उस गुरु के द्वारा जिस गुरु को मंत्र देने का आदेश हो।  अन्यथा यह मंत्र व्यर्थ होता है।  

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सुनील भगत