शनिवार, 19 सितंबर 2015

ध्यान, योग , साधना और उपासना का ज्ञान

। ध्यान।। 
ध्यान वो जो ''आत्मा'' और ''परमात्मा'' के बीच दूरी समाप्त कर सके....ध्यान वो जो जीवों को दिव्य धारणा प्रदान कर सकें...ध्यान वो जो वाह्य जगत से अन्दर की ओर प्रवेश करा सकें...ध्यान ''परमात्मा'' और ''आत्मा'' के बीच में आंशिक रूप से भी जगत प्रवेश न कर सकें।।

योग।।  
''आत्मा'' और ''परमात्मा'' का मिलन योग...''जीव'' और ''ब्रह्म'' का एक होना योग...योग ''शिष्य'' का पूर्णतः ''गुरु'' में समाहित हो संसार में रहते संसार से पार हो, ''प्रभु'' को प्राप्त करना।

!! साधना !! 
साधना का अभिप्राय अपने तन-मन-प्राण स्वांस, ज्ञानेन्द्रिय इन सभी को अपने बस में कर जीवन को गतिशील करना...साधना ''स्व'' को अपने में साध लेना...साधना ''''गुरु' '' को बोध करानें का पहला चरण.......
यदि कोई साधक सच्चे मन से अपने आपको, अपने तन-मन, स्वांस और प्राण को, अपने ज्ञानेन्द्रियों को भली-भांति साध लेता है, वही ध्यान के माध्यम से योग में उतर ''गुरु'' को अर्थात ''परमात्मा'' को प्राप्त कर पाता है.. 

!! उपासना !!
''साधना'' पहला चरण, ''ध्यान'' दूसरा चरण और ''योग'' तीसरा चरण ,फिर इसके बाद चौथा चरण आता है ''उपासना'' का...और फिर ''शक्ति-चैतन्य''...''तटस्थ'' का पूर्णतः जीव में समावेश और पूर्णतः आनंदमय होकर, पूर्णता के साथ संसार और प्रभु को जीते, संसार सागर में रहते हुए संसार से पार...पर जीवों को ''उपलब्धि'', ''पूर्णता'' का आभास तभी हो सकता है, जब जीव इन चरणों में समर्पण करे ......
साधना, ध्यान, योग, उपासना और परमात्मा को नाम से हर जीव जनता है...पर उसे कैसे जाना जायें ..? उस ''परम-सत्ता'' को कैसे पिया जायें..? कैसे अपने रोम-रोम में बसाया जायें ..? और कैसे उस ''परम-प्रभु'' में पूर्णतः विलीन हो जीवन को गतिशील किया जायें ..?
ये युक्ति जीव साधारणतः नहीं जान पाता है, इसके लिए ''सदगुरु'', की आवश्यकता हर जीव को हर योनियों में होती है...कही-कही भावना प्रबल होती है...प्रार्थना, दिव्यता और पवित्रता को धारण किये रहती है तो''सदगुरु'' स्वयं ह्रदय में स्थापित हो जीव को जाग्रत कर अपना बोध करा देता है...पर यह ''परमात्मा'' का स्वरुप अति ही सरल पर दुर्लभ है...इसलिए ''परमात्मा'' किसी न किसी मानव के रूप में, इस पृथ्वी पर आ मानव को कई-कई युक्तियों के माध्यम से अपनी ओर गतिशील करता है.......

और निश्चित ही साधकों को ''पूर्णता'' प्राप्त हो जाती है , किन्तु साधक में ''श्रद्धा'', ''भाव'', ''समर्पण'' और ''विश्वास'' का समावेश होना जरुरी होता है.

सुनील भगत 

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