मंगलवार, 14 जुलाई 2015

अत्रि गोत्र--------अत्रि, अनुसूइया और चंद्रमा

(परमपिता नारायण ने सृष्टि उत्पति के उद्देश्य से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ. , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यदु (यादव) वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए.) यदुवंशियों की उत्पत्ति महर्षि  अत्रि के अंश से मानी जाती है। महर्षि  अत्रि कौन थे- इसका संक्षिप्त वर्णन  नीचे है:-

महर्षि अत्रि:

सृष्टि  वर्धन के उद्देश्य से ब्रह्माजी  ने जिन सात मानस पुत्रों को उत्पन्न किया, उनमे से एक महर्षि अत्रि हैं । महर्षि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के नेत्र या मस्तक से हुआ । हरिवंश पुराण के अनुसार प्रजासर्ग की कामना से  महातेजस्वी ब्रह्मा से  उत्त्पन्न पुत्रों के  नाम थे  - मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ और कौशिक । ये सब ब्रह्माजी के मानस पुत्र कहलाये। इन्हे सप्तऋषि  भी कहा  जाता है।  इन्ही महर्षियों ने समस्त जगत को उत्पन्न  किया और सृष्टि वर्धन की। इनके नाम से  भिन्न भिन्न वंश और गोत्र  प्रचलित  हुए। ब्रह्मा के उपरोक्त मानस  पुत्रों  में ज्येष्ठ  महर्षि मरीचि थे। महर्षि मरीचि के एक  पुत्र  का नाम  था कश्यप ।  कश्यप  के  नाम से  कश्यप गोत्र प्रचलित हुआ।  महर्षि मरीचि के पौत्र  का नाम   विवस्वान था। विवस्वान का अर्थ है सूर्य । अतः विवस्वान के वंशज सूर्यवंशी क्षत्रिय कहलाये। इसी सूर्यवंश में भगवान श्रीराम अवतरित हुए । भगवान श्रीराम सूर्यवंशी क्षत्रिय थे।

(ब्रह्मा के मानस पुत्रों की संख्या के बारे में सभी ग्रन्थ एकमत नहीं हैं। श्रीमदभागवत-महापुराण में  दस  मानस पुत्र  बताये गए हैं, उनके  नाम हैं -मरीची, अत्रि, अंगीरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और नारद।)

ब्रह्मा के दूसरे मानस-पुत्र, जिनका प्रसंग यहाँ चल रहा है, उनका  नाम था अत्रि  ।महर्षि अत्रि के  नाम  से अत्रि गोत्र का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि अत्रि के  एक पुत्र नाम था चंद्रमा । चंद्रमा से  चद्रवंश चला और  उनके वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। इसी  वंश  में आगे चलकर कई पीढ़ियों के बाद महाराज यदु का जन्म हुआ। यदु से यादव वंश चला । यादव कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए  और वे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। महर्षि अत्रि के  कुल में उत्पन्न  होने  से  यदुवंशिवों का ऋषि-गोत्र   "अत्रि"  माना जाता है  और चन्द्रमा के वंशज होने के  कारण है  वे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहे जाते हैं। 

 महर्षि अत्रि एक वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि थे। उनकी गणना सप्तर्षियों में  होती है। वैवस्वत मन्वन्तर में  वे  एक प्रजापति भी थे। इनकी पत्नी का नाम अनुसूइया था। अनुसूइया कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री थीं। महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे।  अनुसूइया भी भक्तिमती थीं। वे दिव्यतेज से संपन्न परम  पतिव्रता और महान देवी थीं। वे चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। एक बार   भगवान श्रीराम  अपनी पत्नी सीता के साथ स्वयं उनके आश्रम पधारे, तब देवी अनुसूया ने माता सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

ब्रह्मा जी ने जब  इस दम्पति को  सृष्टि-वर्धन  की  आज्ञा दी तो इन्होने सृष्टि-वर्धन से पहले तपस्या करने का निश्चय किया।   श्रद्धा पूर्वक  साधना  करते हुए   उन्होंने  दीर्घकाल तक  घोर तपस्या की। इससे   प्रसन्न  होकर ब्रह्मा विष्णु और  महेश तीनों  देवता प्रत्यक्ष रूप से उनके समक्ष उपस्थित हुए और   वरदान मांगने को कहा।  त्रिदेवों को अपने समक्ष आया देखकर अत्रि   दम्पति का ह्रदय आनंद से भर गया।

 ब्रह्मा जी ने अत्रि दम्पति को सृष्टि-वर्धन आज्ञा दी  थी, और वे ही सामने खड़े वर मांगने को कह रहे थे। तब  अत्रि जी ने कोई  और वरदान न मांगकर उन्ही तीनों को पुत्र के  रूप में माँग लिया। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई। त्रिदेवों ने सहर्ष  'एवमस्तु" कहा और अंतर्धान हो गए। समय बीतने के साथ तीनों देवों ने महर्षि के पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया।  विष्णु के अंश से उत्पन्न पुत्र  का नाम था   दत्रात्रेय ,ब्रह्मा के अंश से   उत्पन्न पुत्र  का नाम "चंद्रमा", और भगवान शंकर के अंश से  उत्पन्न पुत्र का नाम  "दुर्वाषा" हुआ ।


                                                        चंद्रमा
चंद्रमा महर्षि  अत्रि का पुत्र था। उन्हें  ब्रह्मा का अंशावतार भी कहा  जाता है। चंद्रमा को प्रजापति ब्रह्मा ने औषधियों का स्वामी बनाया था। अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए एक बार चंद्रमा ने   राजसूय यज्ञ किया।  यज्ञ  की सफलता से वे  इतना  मदोन्मत हो गये  कि  देवताओं के गुरु वृहस्पति की सुंदर पत्नी 'तारा'  का हरण कर लिया। देवऋषि  वृहस्पति ने अपनी पत्नी को  प्राप्त करने  के   बहुत प्रयास  किये  किन्तु  सफल  नहीं हुए। तब  बीच बचाव के उद्देश्य से वे देवताओं के राजा इंद्र के पास  गए।  देवेन्द्र ने  चंद्रमा को बहुत समझाया  किन्तु वह  नहीं माना । तब  ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने चंद्रमा को समझाने बुझाने का  पर्यत्न किया, किन्तु उसने उनकी बात भी नहीं मानी और तारा को लौटने से साफ़ इंकार कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर देवराज इंद्र ने विशाल सेना के साथ चंद्रमा पर चढ़ाई कर दी ।

जिस प्रकार देवताओं के गुरु  वृहस्पति थे, उसी प्रकार दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जी थे । दोनों  एक दूसरे से द्वेष मानते थे।  इस  कारण जब इंद्र ने वृहस्पति के पक्ष में चंद्रमा पर चढ़ाई की तो शुक्राचार्य जी चन्द्रमा की सहायता के लिए सेना लेकर मैदान में आ डटे ।   शुक्राचार्य की सेना बहुत बलवान थी।  उसमें जम्भ, कुम्भ  आदि   भयंकर दैत्य शामिल  थे। इस प्रकार तारा को पाने के लिए दैत्यों  और देवताओं के बीच संग्राम छिड़ गया। जिसे देवासुर संग्राम कहा जाता है।   देवासुर संग्राम  इतना भयंकर था कि  उससे संसार के समस्त प्राणी क्षुब्ध हो गए।  सब इकट्ठे होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए।   ब्रह्माजी ने बीच-बचाव करते हुए  देवताओं और दानवों के बीच समझौता करा दिया। युद्ध समाप्त हो गया।  समझौते को मानते हुए चंद्रमा ने तारा  को लौटा दिया।    देवऋषि  वृहस्पति की पत्नी पुनः उनके पास आ गयी। 

 जब   तारा  वृहस्पति के पास आयी, उस समय   वह गर्भवती थी। उसको गर्भावस्था  में देखकर   वृहस्पति के  क्रोध का ठिकाना न रहा। क्रोध भरे स्वर में उसे धमकाते हुए वृहस्पति जी बोले  - "मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है, इसे शीघ्र  दूर करो।" . वृहस्पति के ऐसा  कहने पर तारा ने  झाड़ियों में जाकर   गर्भ को गिरा दिया।  जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक निकला।  वह इतना  रूपवान  था  कि उसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज भी  फीका प्रतीत होता  था।  सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों मुग्ध हो गए ।  दोनों  उसे अपना पुत्र बनाना चाहते थे। इसी बात को लेकर दोनों में ताना-तनी हो गयी।  बात इतनी बढ़ गयी कि दोनों को फिर देवताओं की शरण जाना पड़ा ।  बालक को पाने लिए दोनों को इतना उत्सुक देखकर देवताओं के मन में  संदेह उत्पन्न हो गया। विस्मित होकर वे सोचने लगे कि यह रूपवान बालक किसका पुत्र है ? जब पता लगाने के सभी उपाय असफल हो गए तब  उन्होंने  तारा से पूछा - "देवी तारा ! सत्य बताओ तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न यह किसका पुत्र  है?"  लज्जावश  तारा कुछ   नहीं  बोली , वह  चुपचाप  खड़ी  रही । देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया। यह देखकर तारा का पुत्र    कुपित हो गया और कहने लगा- " शीघ्र  बताओ मैं किसका पुत्र हूँ , नहीं तो मै तुम्हे   भयंकर शाप  दे दूंगा।"  शाप से  होने वाले गम्भीर परिणामों  को ध्यान में रखकर ब्रह्मा जी ने उस बालक को ऐसा करने से मना  किया और स्वयं तारा से सच्चाई पूछने लगे। ब्रह्मा जी के पूछने पर तारा बोली - "यह बालक चन्द्र्मा का पुत्र  है।"  तारा के मुख से यह शब्द  सुनकर चंद्रमा की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। प्रसन्नता से वह उछलने  लगा।  हँसते हुए  बालक को गले से  लगाया। प्यार  से उसका मुख  चूमा  और लाड़  भरे शब्दों में बोला  - "वत्स! अति उत्तम, अति सुन्दर, तुम बहुत बुद्धिमान हो इसलिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ।"  इस प्रकार चंद्रमा का यह  पुत्र   बुध के नाम से विख्यात हुआ। 
                                        
बुध चंदमा के पुत्र थे इसलिए वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। बुध के पुत्र का नाम था पुरुरवा। इस कुल में आगे चलकर  पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए।  यदु से यादव वंश चला।  यदु की कई पीढ़ियों के बाद यादव कुल में माता देवकी की कोख से भगवान श्रीकृष्ण ने मानव रूप में अवतार लिया। 













सुनील भगत 








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