---~~~****★॥ ओ३म् ॥★****~~~---
--~**★सम्पूर्ण सफलता का रहस्य ★**~--
---~~~****★॥ १०८ ॥★****~~~---
— ॥ओ३म्॥ — का जप करते समय १०८ प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास मे अत्यन्त प्रबल कारण है।
मेरा आप सभी से अनुरोध है बिना अंधविश्वास समझे कर्तव्य भाव से इस ॥ १०८ ॥ को पवित्र अंक स्वीकार कर, आर्य-वेदिक संस्कृति के आपसी सहयोग, सहायता व पहचान हेतु निसंकोच प्रयोग करें । इसका प्रयोग प्रथम दृष्टिपात स्थान पर करें जैसे द्वार पर इस प्रकार करें।
॥ १०८ ॥
यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे साधु-संतों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है और अब अति शीघ्र यही अंक हमारी महानम सनातन वेदिक संस्कृति के लिये प्रगाढ़ एकता का विशेष संकेत-अंक (code word) बन जायेगा।
----~~~****★॥ओ३म् ॥★****~~~---
--~***★ संख्या १०८ का रहस्य ★***~--
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अ→१ ... आ→२ ... इ→३ ... ई→४ उ→५ ... ऊ→६. ... ए→७ ... ऐ→८ ओ→९ ... औ→१० ... ऋ→११ ... लृ→१२
अं→१३ ... अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
क→१ ... ख→२ ... ग→३ ... घ→४ ...
ङ→५ ... च→६ ... छ→७ ... ज→८ ...
झ→९ ... ञ→१० ... ट→११ ... ठ→१२ ...
ड→१३ ... ढ→१४ ... ण→१५ ... त→१६ ...
थ→१७ ... द→१८ ... ध→१९ ... न→२० ...
प→२१ ... फ→२२ ... ब→२३ ... भ→२४ ...
म→२५ ... य→२६ ... र→२७ ... ल→२८ ...
व→२९ ... श→३० ... ष→३१ ... स→३२ ...
ह→३३ ... क्ष→३४ ... त्र→३५ ... ज्ञ→३६ ...
ड़ ... ढ़ ...
--~~~***★ ओ३म् ब्रह्म ★***~~~--
ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(१) — यह मात्रिकाएँ (१८स्वर +३६व्यंजन=५४) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(२) — मनुष्य शरीर की ऊँचाई
= यज्ञोपवीत की परिधि
= (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है।
= ४ × २७ = १०८
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(३) नक्षत्रों की कुल संख्या = २७
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४
जप की विशिष्ट संख्या = १०८
अर्थात गायत्री आदि मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(४) — एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य
★ पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=१०८
★ पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=१०८
अर्थात मन्त्र जप १०८ से कम नही करना चाहिये।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(५) हिंसात्मक पापों की संख्या ३६ मानी गई है जो मन, वचन व कर्म ३ प्रकार से होते है। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(६) सामान्यत: २४ घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष १२ घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार। इसी समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये १०८ की संख्या निर्धारित करते हैं।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(७) एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता
है। छ: माह उत्तरायण में रहता है और छ: माह
दक्षिणायन में। अत: सूर्य छ: माह की एक स्थिति
में १०८००० बार कलाएं बदलता है।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(८) 786 का पक्का जबाब — ॥ १०८ ॥
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(९) ब्रह्मांड को १२ भागों में विभाजित किया गया है। इन १२ भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन १२ राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(१०) १०८ में तीन अंक हैं १+०+८. इनमे एक “१" ईश्वर का प्रतीक है। शून्य “०" प्रकृति को दर्शाता है। आठ “८" जीवात्मा को दर्शाता है क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के विरक्त हो कर ( मोह माया लोभ आदि से विरक्त होकर ) ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “८" को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०" का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “१" का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “०" में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “०" को जो की जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा , शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “८" ईश्वर “१" से नहीं मिल पायेगा पूर्णता (१+८=९) को नही प्राप्त कर पायेगा। ९ पूर्णता का सूचक है।
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(११) जैन मतानुसार
अरिहंत के गुण - १२
सिद्ध के गुण - ८
आचार्य के गुण - ३६
उपाध्याय के गुण - २५
साधु के गुण - २७
कुल योग - १०८
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(१२) वेदिक विचार धारा मे मनुस्मृति के अनुसार
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =
अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८
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(१३) ★ Vertual Holy Trinity ★
संख्या “१" एक ईश्वर का संकेत है।
संख्या “०" जड़ प्रकृति का संकेत है।
संख्या “८" बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है।
[ यह तीन अनादि परम वेदिक सत्य है ]
[ यही पवित्र त्रेतवाद ( Holy Trinity ) है ]
संख्या “२" से “९" तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “०" रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “०" न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती। “१" की चेतना से “८" का खेल । “८" यानी “२" से “९" । यह “८" क्या है ? मन के “८" वर्ग या भाव । ये आठ भाव ये हैं - १. काम ( विभिन्न इच्छायें । वासनायें ) । २. क्रोध । ३. लोभ । ४. मोह । ५. मद ( घमण्ड ) । ६. मत्सर ( जलन ) । ७. ज्ञान । ८. वैराग ।
एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतिक है ——★ ॥ १०८ ॥ ★——
इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
रहस्यमय संख्या १०८ का हिन्दू- वेदिक संस्कृति के साथ हजारों सम्बन्ध है जिनमें से कुछ को मेंने जाना है और कुछ को शायद आप जानते होंगें तो कृपया उसे हमारे साथ विनिमय करें।
---~~~****★॥ ओ३म् ॥★****~~~--
सुनील भगत
--~**★सम्पूर्ण सफलता का रहस्य ★**~--
---~~~****★॥ १०८ ॥★****~~~---
— ॥ओ३म्॥ — का जप करते समय १०८ प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास मे अत्यन्त प्रबल कारण है।
मेरा आप सभी से अनुरोध है बिना अंधविश्वास समझे कर्तव्य भाव से इस ॥ १०८ ॥ को पवित्र अंक स्वीकार कर, आर्य-वेदिक संस्कृति के आपसी सहयोग, सहायता व पहचान हेतु निसंकोच प्रयोग करें । इसका प्रयोग प्रथम दृष्टिपात स्थान पर करें जैसे द्वार पर इस प्रकार करें।
॥ १०८ ॥
यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे साधु-संतों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है और अब अति शीघ्र यही अंक हमारी महानम सनातन वेदिक संस्कृति के लिये प्रगाढ़ एकता का विशेष संकेत-अंक (code word) बन जायेगा।
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--~***★ संख्या १०८ का रहस्य ★***~--
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अ→१ ... आ→२ ... इ→३ ... ई→४ उ→५ ... ऊ→६. ... ए→७ ... ऐ→८ ओ→९ ... औ→१० ... ऋ→११ ... लृ→१२
अं→१३ ... अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६
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क→१ ... ख→२ ... ग→३ ... घ→४ ...
ङ→५ ... च→६ ... छ→७ ... ज→८ ...
झ→९ ... ञ→१० ... ट→११ ... ठ→१२ ...
ड→१३ ... ढ→१४ ... ण→१५ ... त→१६ ...
थ→१७ ... द→१८ ... ध→१९ ... न→२० ...
प→२१ ... फ→२२ ... ब→२३ ... भ→२४ ...
म→२५ ... य→२६ ... र→२७ ... ल→२८ ...
व→२९ ... श→३० ... ष→३१ ... स→३२ ...
ह→३३ ... क्ष→३४ ... त्र→३५ ... ज्ञ→३६ ...
ड़ ... ढ़ ...
--~~~***★ ओ३म् ब्रह्म ★***~~~--
ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८
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(१) — यह मात्रिकाएँ (१८स्वर +३६व्यंजन=५४) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।।
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(२) — मनुष्य शरीर की ऊँचाई
= यज्ञोपवीत की परिधि
= (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है।
= ४ × २७ = १०८
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(३) नक्षत्रों की कुल संख्या = २७
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४
जप की विशिष्ट संख्या = १०८
अर्थात गायत्री आदि मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये ।
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(४) — एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य
★ पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=१०८
★ पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=१०८
अर्थात मन्त्र जप १०८ से कम नही करना चाहिये।
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(५) हिंसात्मक पापों की संख्या ३६ मानी गई है जो मन, वचन व कर्म ३ प्रकार से होते है। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये।
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(६) सामान्यत: २४ घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष १२ घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार। इसी समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति को हर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये १०८ की संख्या निर्धारित करते हैं।
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(७) एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता
है। छ: माह उत्तरायण में रहता है और छ: माह
दक्षिणायन में। अत: सूर्य छ: माह की एक स्थिति
में १०८००० बार कलाएं बदलता है।
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(८) 786 का पक्का जबाब — ॥ १०८ ॥
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(९) ब्रह्मांड को १२ भागों में विभाजित किया गया है। इन १२ भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन १२ राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है।
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(१०) १०८ में तीन अंक हैं १+०+८. इनमे एक “१" ईश्वर का प्रतीक है। शून्य “०" प्रकृति को दर्शाता है। आठ “८" जीवात्मा को दर्शाता है क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के विरक्त हो कर ( मोह माया लोभ आदि से विरक्त होकर ) ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “८" को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०" का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “१" का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “०" में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “०" को जो की जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा , शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “८" ईश्वर “१" से नहीं मिल पायेगा पूर्णता (१+८=९) को नही प्राप्त कर पायेगा। ९ पूर्णता का सूचक है।
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(११) जैन मतानुसार
अरिहंत के गुण - १२
सिद्ध के गुण - ८
आचार्य के गुण - ३६
उपाध्याय के गुण - २५
साधु के गुण - २७
कुल योग - १०८
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(१२) वेदिक विचार धारा मे मनुस्मृति के अनुसार
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =
अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८
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(१३) ★ Vertual Holy Trinity ★
संख्या “१" एक ईश्वर का संकेत है।
संख्या “०" जड़ प्रकृति का संकेत है।
संख्या “८" बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है।
[ यह तीन अनादि परम वेदिक सत्य है ]
[ यही पवित्र त्रेतवाद ( Holy Trinity ) है ]
संख्या “२" से “९" तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “०" रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “०" न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती। “१" की चेतना से “८" का खेल । “८" यानी “२" से “९" । यह “८" क्या है ? मन के “८" वर्ग या भाव । ये आठ भाव ये हैं - १. काम ( विभिन्न इच्छायें । वासनायें ) । २. क्रोध । ३. लोभ । ४. मोह । ५. मद ( घमण्ड ) । ६. मत्सर ( जलन ) । ७. ज्ञान । ८. वैराग ।
एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतिक है ——★ ॥ १०८ ॥ ★——
इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है ।
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रहस्यमय संख्या १०८ का हिन्दू- वेदिक संस्कृति के साथ हजारों सम्बन्ध है जिनमें से कुछ को मेंने जाना है और कुछ को शायद आप जानते होंगें तो कृपया उसे हमारे साथ विनिमय करें।
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सुनील भगत
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