बुधवार, 31 दिसंबर 2014

यज्ञ का रहस्य :-

यज्ञ का रहस्य।

वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-(1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ।

यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए ग

ए आह्‍वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है।

(1) ब्रह्मयज्ञ : जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्‍य। मनुष्‍य से बढ़कर है पितर, अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पाँच शक्तियाँ और देव से बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्‍वर अर्थात ब्रह्म। यह ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' ‍चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्‍ट होता है।

(2) देवयज्ञ : देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता है।
हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएँ (लकड़ियाँ) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जाँटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।

(3) पितृयज्ञ : सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।

(4) वैश्वदेवयज्ञ : इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।

(5) अतिथि यज्ञ : अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।

सुनील भगत

कुण्डलिनी चक्र और जाग्रत करने की विधि :



1. मूलाधार चक्र :
यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9%
लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

इस चक्र में श्री गणेश जी का वास होता है।  
मंत्र : लं
चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए
भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने
लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।
प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है।



 2. स्वाधिष्ठान चक्र-
यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

इस चक्र में सावित्री और ब्रह्मा जी का वास होता है। 
मंत्र : वं
कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश
होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।




3. मणिपुर चक्र :
नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस
कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी
रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

इस चक्र में लक्ष्मी और विष्णु जी का वास होता है।
मंत्र : रं
कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो
जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना
जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं।
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।




4. अनाहत चक्र-
हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से
सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील
व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार,
इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

इस चक्र में पार्वती और  शिव जी का वास होता है।

मंत्र : यं
कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर
रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना
इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।
प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार
समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है।
इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।



5. विशुद्ध चक्र-
कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर
यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

इस चक्र में अष्टांगी माता दुर्गा जी का वास होता है।
मंत्र : हं
कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत
होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।






6. आज्ञाचक्र :
भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां
ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है
लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।
मंत्र : ऊं
कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।
प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी
शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।





7. सहस्रार चक्र :
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम
का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को
संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।
कैसे जाग्रत करें :
मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत
हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।
प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

 














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सुनील भगत

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है

कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है
श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है |

सुनील भगत

पूर्ण मोक्ष साधन

पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए उपदेश मंत्र साधना ( नाम दान)

पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है। शास्त्र विधि अनुसार पूजा अति उत्तम है। शास्त्रानुकूल पूजा से ही पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति अर्थात सतलोक गमन सम्भव है। तीन मंत्रोें के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है। सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त द्वारा अपने अधिकारी शिष्य को उसकी भक्ति एवं दृढता के स्तर के अनुसार तीन प्रकार के मंत्रों (नाम दान) क्रमशः तीन बार उपदेश करने सेे समस्त पाप कर्म कटते हैं। 

कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 -तब  कबीर  अस कहेवे लीन्हा,ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा ।।
धर्मदास   मैं  कहो   बिचारीजिहिते निबहै सब संसारी ।।

प्रथमहि शिष्य  होय जो आईता कहैं पान देहु तुम भाई ।।1।।

जब देखहु तुम  दृढ़ता  ज्ञानाता  कहैं  कहु शब्द प्रवाना ।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवैता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै ।।3।।

दोबारा फिर समझाया है -
बालक   सम  जाकर  है  ज्ञाना । तासों  कहहू  वचन    प्रवाना ।।1।।
जा  को  सूक्ष्म   ज्ञान   है  भाई । ता  को  स्मरन   देहु  लखाई ।।2।।
ज्ञान   गम्य  जा  को पुनि  होई । सार  शब्द जा को  कह  सोई ।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा । ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा ।।4।।
उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु पूर्ण संत तीसरी स्थिति में सार नाम प्रदान करता है

प्रथम बार में नाम जाप : ब्रह्म गायत्री मन्त्र
मूलाधार चक्र में श्री गणेश जी का वासस्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्री जी का वासनाभि चक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वासहृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वासकंठ चक्र में माता अष्टंगी का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्र होते हैं इन मंत्रों के जाप से बाद मानव भक्ति करने के लायक बनता है। सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:--

पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ऊँ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।।
भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्री है। इनका जाप करके आत्मा को जागृत करो ।

द्वितीय बार में नाम जाप : सतनाम
सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त दूसरी बार में दो अक्षर का सतनाम जाप देते हैं जिनमें एक ऊँ और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है।

कबीरजब ही सत्यनाम हृदय धरोभयो पाप को नाश।          मानो  चिन्गारी  अग्नि  की,   पड़ी  पुराणे  घास।।  

भावार्थ:- यथार्थ साधना पूर्ण सन्त से प्राप्त करके सतनाम का स्मरण हृदय से करने से सर्व पाप (संचित तथा प्रारब्ध के पाप) ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे पुराने सूखे घास को अग्नि की एक चिंगारी जलाकर भस्म कर देती है। 

तृतीय बार में नाम जाप : सारनाम
सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है।
कबीरकोटि नाम संसार में इनसे मुक्ति न हो।
सार नाम मुक्ति का दातावाको जाने न कोए।।

तीन बार में नाम जाप का प्रमाण:--
ऊँतत्सत्इतिनिर्देशःब्रह्मणःत्रिविधःस्मृतः,
ब्राह्मणाःतेनवेदाःयज्ञाःविहिताःपुरा ।।गीता 17.23।।

अनुवाद: (ऊँऊँ सांकेतिक मंत्र ब्रह्म का (तत्) तत् सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का (सत्) सत् सांकेतिक मंत्र पूर्णब्रह्म का (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे।(गीता 17.23)


Sunil Bhagat

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पुजा - पाठ कैसे करे ?

पुजा - पाठ
पुजा - पाठ कैसे करे ?

1- पुजा घर ईशान कोण मे हो …॥
2- पुजा करने वाले का मुख उत्तर या पुर्व दिशा मे हो ।
3- गणेश, कुबेर और दुर्गा का मुख पश्चिम दिशा मे और हनुमान जी का नैॠत्य कोण मे हो ।
4- शयनकक्ष मे पुजा घर न हो, अगर स्थानाभाव हो तो पुजा घर मे पर्दा लगा ले।
5- शयनकक्ष मे उत्तर और पुर्व दिशा मे पुजा घर हो ।
6- उग्र और तामसी शक्तियो कि मुर्ति का मुख पश्चिम या दक्षिण दिशा मे हो ।
7- सोते समय व्यक्ति का सिर पुर्व दिशा मे हो, ताकि सोते समय पैर भगवान हि तरफ़ न हो।
8- पुजा घर के आस पास या उपर- निचे शौचालय न बनाये ।
9- घर की सीढीयो के नीचे पुजा घर न हो ।
10- पुजा घर मे 1 से 12 अंगुल तक की मुर्ति का पूजन करे।
11- मिट्टी की बनी मुर्ति किसी भी देवता की हो 3 दिन से अधिक नही रखनी चाहिये। इससे घर मे दरिद्रता, मारपीट, झगडा,रोग, व्याधि आती है।
12- घर मे चल मुर्ति की स्थापना न करे।
13- चल हो या अचल मुर्ति मे प्राणप्रतिष्ठा अवश्य होनी चाहीये।
14- मुर्ति के निकट अधिक प्रकाश न हो ।
15- बाहरी व्यक्ति को मुर्ति के पास नही जाने देना चाहीये। इससे मुर्ति की उर्जा समाप्त होती है।
16- शक्ति की मुर्ति की पुजा रात्री 9 से 12 के भीतर और देव मुर्तियो की पुजा का समय प्रात: 4 से 6 के बीच होना चाहीये।
17- किसी भी देवी या देवता की मुर्ति दिवार से थोडी हटाकर रखनी चाहिये। और उस पर परछाई नही पडनी चाहीये।
18- गणेश जी के दाहिने और विष्णु जी के बायें लक्ष्मी जी का स्थापना करनी चाहीये।
19- धन ऐश्वर्य और शत्रु नाश के लिये चांदी के गणेश लक्ष्मी की स्थापना करनी चाहीये।
20- पुजा के कमरे के दरवाजे पर दहलीज होनी चाहीये।
21- द्वार का दरवाजा दो पल्लों का होना चाहीये।
22- पुजा के समय जलाये जानावाला दिपक यदि भूमी पर रखना हो तो उसके नीचे चावल अवश्य रखे, वर्ना घर मे चोरी हो सकती है॥
23- घी का दिपक देवता के दाहिने और तेल का दिपक बाये जलाना चाहीये॥
24- पुजा घर की दिवारो का रंग पीले या सफ़ेद रंग का हो ।
25- पुजा घर के अग्निकोण मे दिप अवश्य जलाना चाहीये।
26- हवनकुण्ड और अगरबत्ती भी अग्निकोण मे रखे।
27- देवताओ को '' तांबा '' धातु प्रिय है अत: पुजन मे तांबे की धातु के बर्तनो का ही प्रयोग करे तो उत्तम्।
28 - पुजा करते समय दिपक का स्पर्श हो जाये तो हाथ धो लेना चाहिये, अन्यथा दोष लगेगा ।
27- शिवलिंग पर चढे फ़ल,फ़ुल, नैवेद्य आदि का उपयोग न करे, उसे विसर्जित कर दे।
28- गणेश जी को तुलसी न चढायेअ ।
29- विष्णु मंदिर की 4 बार, शिव जी की आधी ,देवी की 1, सुर्य की 7 और गणेश जी की 3 परिक्रमा करनी चाहीये।
30- कन्या पुजन मे 1 वर्ष से कम और 10 वर्ष से अधिक की आयु की कन्या न हो ॥
31- प्रत्येक गृहस्थ को घर मे तुलसी का पौधा अवश्य रखना चाहीये।
32- सांयकाल मे तुलसी के नीचे दिप जलाकर 5 बार परिक्रमा करनी चाहीये।
33- घर मे मुख्य रुप से 1 ही पुजा घर हो। छोटे छोटे कई पुजाघर हो तो इससे घर के सदस्य अशान्त रहते है।
34- पुजाघर मे संत महात्मा के चित्र भी होने चाहीये ॥


Sunil Bhagat

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

सतनाम को सारनाम, सारशब्द, सतनाम, सतलोक तथा सतपुरूष कहते हैं।

कबीर, जो जन होगा जौहरी, लेगा शब्द विलगाय। 
सोहं - सोहं जप मुए, व्यर्था जन्म गंवाए।।
कोटि नाम संसार में, उनसे मुक्ति न होए। 
सारनाम मुक्ति का दाता, वाकुं जाने न कोए।।
आदरणीय गरीबदास साहेब जी की अमृत वाणी:-
गरीब, सोहं ऊपर और है, सतसुकृत एक नाम। 
सब हंसों का बास है, नहीं बस्ती नहीं गाम।।
सोहं में थे ध्रुव प्रहलादा, ओ3मसोहं वाद विवादा।
नामा छिपा ओ3मतारी, पीछे सोहं भेद विचारी। 
सार शब्द पाया जद लोई, आवागवन बहुर न होई।।


सद्ग्रन्थों के मन्त्रो (श्लोकों) में परमात्मा की महिमा है तथा उसको प्राप्त करने की विधि भी है। जब तक उस विधि को ग्रहण नहीं करेगें तब तक आत्म कल्याण अर्थात् ईश्वरीय लाभ प्राप्ति असम्भव है। जैसे पवित्र गीता अध्याय 17 मन्त्र (श्लोक) 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का तो केवल ॐ तत सत मन्त्र है, इसको तीन विधि से स्मरण करके मोक्ष प्राप्ति होती है। ओम् मंत्र ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष का जाप है, तत् मंत्र (सांकेतिक है जो उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का जाप है तथा सत् मन्त्र (सांकेतिक है इसे सत् शब्द अर्थात् सारनाम भी कहते हैं। यह भी उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरूष (सतपुरूष) का जाप है। इस (ॐ-तत्-सत्) के जाप की विधि भी तीन प्रकार से है। इसी से पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

सुनील भगत 

श्रुष्टि रचना:6

||सेवक सेवा में रहे, सेवक कहिये सोय | कहे कबीरा मुर्ख, सेवक कभी ना होय||

फिर तीनो ने भोग विलास किया सुर तथा असुर दोनों पैदा हुए जब तीसरी बार सागर मंथन किया तो 14 रतन ब्रह्मा को तथा अमृत विष्णु को व देवताओंको मध् अर्थात शराब असु रोंको तथा विष परमारथ शिव ने अपने कंठ में ठहराया जब ब्रह्मा वेद पड़ने लगा तो कोई सर्व ब्रह्मांडो की रचना करने वाला कुल मालिक पुरुष प्रभु तो कोई और है तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी व शंकर जी से बताया की वेदों में वर्णन है की सर्जनहार कोई और ही प्रभु है परन्तु वेद कहते है की उस पूर्ण परमात्मा का भेद हम भी नहीं जानते उसके लिए संकेत है की किसी तत्वदर्शी संत से पूछो तब ब्रह्मा माता प्रकृति के पास आया और सब वृतांत कह सुनाया माता कहा करती थी की मेरे अतिरिकत और कोई नहीं हे | में ही कर्ता हूँ और में ही सर्वशक्तिमान हूँ परंतु ब्रह्मा ने कहा वेद इश्वर कृत है ये झूट नहीं हो सकते फिर दुर्गा ने कहा की बेटा ब्रह्मा तेरा पिता तुझे दर्शन नहीं देगा क्योकि उसने प्रतिज्ञा कि हुई है |तब ब्रह्माजी ने कहा की माताजी अब आप की बात पर मुझे अविश्वास हो गया है में उस पुरुष प्रभु का पता लगाकर ही रहूँगा दुर्गा ने कहा की यदि व तुझे दर्शन नहीं देगा तो तुम क्या करोगे?तब ब्रह्माजी ने कहा की में आपको शकल नहीं दिखाऊंगा दूसरी तरफ ज्योत निरंजन ने कसम खाई है की में अव्यक्त ही रहूँगा किसीको दर्शन नहीं दूंगा अर्थात 21 ब्रह्मांड में कभी भी अपने वास्तविक काल रूप आकार में नहीं आऊँगा इस काल भगवान् अर्थात ब्रह्म क्षरपुरुष में त्रुटीया है इसलिए ये अपना साकार रूप प्रकट नहीं करता इसने अपने ब्रह्मलोक में जो तीन स्थान बना रखे है जैसे महाब्रह्मा, महाविष्णु और महाशिव ज्यादा से ज्यादा इन रुपो मे प्रकट होकर इनका साकार रूप में दिखाई दे सकता है पर अपना वास्तविक रूप को छुपाकर रखता है | और किसी को भी अपना ज्ञान होने नहीं देता|सभी रूषीमुनि, महारुषीमुनि बस यही कहते है की वो प्रभु प्रकाश है पर देखने वाली बात यह है की जिसका भी प्रकाश है आखिर वो भी तो अपने वास्तविक रूप में होगा | उदहारण जैसे सूरज का प्रकाश हे तो सूरज भी तो अपने वास्तविक रूप में है | चाँद का प्रकाश हे तो चाँद भी अपने वास्तविक रूप में है | पर ज्ञान न होने के कारण सभी कहते है परमात्मा तो निराकार है जब की वेद कह रहे है की परमात्मा साकार रूप में है वेदों में लिखा हुआ है अग्नेस्तनुअसि अर्थात परमात्मा शहशरीर है | पर जब तक हमको पूर्ण परमात्मा व् श्रुष्टि रचना का ज्ञान नहीं होगा तब तक हम इस अश्रेष्ठ काल के यानी ब्रह्म के जाल में ही फसे रहेंगे तो अभी चक्कर में न पड़कर आइये पूर्ण परमात्मा का साक्षा त्कार करने के लिए और अपने बिछड़े हुवे परमात्मा से फिर वापिस मिलने के लिये और अपनी आत्मा को हमेशा हमेशा के लिए इस क्षरपुरुष ब्रह्म काल अर्थात ज्योतनिरंजन के जाल से मुक्त करे और जाये अपने सतलोक | प्रभु परम अक्षरपुरुष अर्थात पूर्णब्रह्म परमे श्वर पूर्ण परमात्मा के पास | सारनाम यानी सारशब्द का सुमरण करके | और ये मनुष्य जनम बहुत ही अनमोल है समझदार मनुष्य को इशारा ही काफी होता है |

सुनील भगत  

श्रुष्टि रचना:5

|| माया सब कहे, माया लखे न कोय | जो मनसे ना उतरे, मया कहिये सोय || 

1 रजोगुण 2 सतोगुण 3 तमोगुण फिर रजोगुण प्रधान क्षेत्र में अपनी पत्नी प्रकृति के साथ रहकर एक पुत्र की उत्पति की उसका नाम ब्रह्मा रखा और ब्रह्माजी में रजोगुण प्रकट हो गये |उसी प्रकार सतोगुण क्षेत्र में रहकर जो पुत्र उत्पन हुआ उसका नाम विष्णु रखा और विष्णु में सतोगुण प्रकट हो गये | फिर तमोगुण क्षेत्र में जो पुत्र उत्पन हुआ उसका नाम शिव रख देता है | और शिव में तमोगुण प्रकट हो जाते है |इसी प्रकार सभी ब्रह्मांडो की रचना की हुई है फिर तीनो पुत्रो की उत्पति करने के पशचात ब्रह्म काल ने अपनी पत्नी दुर्गा से कहा की में प्रतिज्ञा करता हूँ की भविष्य में वापिस में किसी को अपने वास्तविक रूप में दर्शन नहीं दूंगा जिस कारण से में अव्यक्त अर्थात निरंकार माना जाऊंगा दुर्गा से कहा की आप मेरा भेद किसी को मत देना में गुप्त रहूँगा दुर्गा ने कहा क्या आप अपने पुत्रो को भी दर्शन नहीं दोगे ? ब्रह्म अर्थात काल ने कहा में अपने पुत्रो को तथा अन्य किसी को भी कोई भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा ये मेरा अटल नियम रहेगा | दुर्गा ने कहा ये आप का उत्तम नियम नहीं हे जो आप अपनी संतान से भी छुपे रहोगे तब काल ने कहा दुर्गा ये मेरी विवशता है मुझे एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है यदि मेरी इस सत्यता का पता मेरे तीनो पुत्रो को पता लग गया तो ये उत्पति सिथ्ती तथा सहार का कार्य नहीं करेंगे | इसलिए यह मेरा अनुतम अर्थात घटिया नियम सदा ही बना रहेगा|जब ये तीनो पुत्र जब बड़े हो जाये तो इन्हें अचेत कर देना मेरे विषय में कुछ नहीं बताना नहीं तो में तुझे भी दंड दे दूंगा इस डर के मारे दुर्गा अपने तीनो पुत्रो को वास्तविकता नहीं बताती | जब तीनो पुत्र युवा हो गए तब माता प्रकृति ने कहा की तुम सागर मंथन करो प्रथम बार सागर मंथन किया तो ज्योत निरंजन ने अपने स्वासो द्वारा चार वेद उत्पन किये | उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी की सागर में निवास करो वो चारो वेद निकले वो चार वेदों को लेकर तीनो बच्चे माता के पास आये तब माता ने कहा की चारो वेदों को ब्रह्मा रखे व पढ़े | नोट: वास्तव में पूर्णब्रह्म ने, ब्रह्म अर्थात काल को पांच वेद प्रदान किये थे लेकिन ब्रह्म काल ने केवल चार वेदों को ही प्रकट किया पांचवा वेद छुपा लिया जो  (कविगिर्भी) अर्थात (कविर्वाणी) कबीर वाणी लोकोकित्यों व दोहों के माध्यम से प्रकट होता है | और इन अज्ञानी नकली गुरुवो और महेंतो ने अपनी अटकल लगाकर और एक वेद बनाया हे जिसको कहते है लोकवेद जिसका पवित्र गीता में वर्णन है | अ : न: 15 के श : 18 में सुना सुनाया ज्ञान अर्थात शास्त्र विरुद्ध साधना |
दूसरी बार सागर मंथन किया तो तीन कन्याये मिली माता ने तीनो को बाँट दिया प्रकृतीने अपने ही अन्य तीन रूप सावि त्री, लक्ष्मी तथा पार्वती धारण किये तथा समु न्दर में छुपा दी सागर मंथन के समय बाहर आ गई वही प्रकृति तीन रूप हुई तथा भग वान् ब्रह्मा को सावित्री भगवान् विष्णु को लक्ष्मी भगवान् शंकर को पार्वती दी |

सुनील भगत 

श्रुष्टि रचना:4

|| चंदन जैसा संत है, सर्प है सब संसार | ताके संग लगा रहे, करत नहीं विचार|| 

आज्ञा अनुसार सारा काम कर के अपने द्वीप अर्थात लोक में लोट आया | युवा होने के कारण लड़की का रूप निखरा हुआ था | इस ज्योत निरंजन अर्थात क्षरपुरुष ब्रह्म के मन में नीचता उत्पन हुई जो आज हम सब प्राणियों में विधमान है वही वृति वही प्रक्रिया अर्थात वही बुरी आदत लड़की को देखकर ज्योत निरंजन ने बदतमीजी करनेकी चेष्टा अर्थात इच्छा प्रगट की प्रकृति ने कहा निरंजन तू जो सोच रहा है वो ठीक नहीं है क्योंकि तू और में एक ही पिता की संतान है पहले अंडे से तेरी उत्पति हुई और फिर पिताजी ने मुझे उत्तपन किया इस नाते से में और तू बहन भाई हुए | बहन और भाई का ये कर्म पाप का भागी होता है तू मानजा मेरी बात | ज्योत निरंजन ने एक भी बात उस लड़की की नहीं मानकर और मदहोश व कामवश व विषयवासना के बस में होकर उस लड़की को पकड़ने की चेष्टा की दुष्कर्म करने के लिए | फिर लड़की ने उस निरंजन से बचने के लिए और कही स्थान ना पाकर जो ही उस काल ने मूह खोला हुआ था आलिंगन करने के लिए बाजू फेलाई थी उसी समय लड़की ने छोटा सा रूप शुक्ष्म रूप बनाया अति सूक्ष्म उसके खोले हुए मूहँ द्वारा उसके पेट में प्रवेश कर गई और अपने पिताजी से पुकार की प्रभु मेरी रक्षा करो मुझे बचाओ ये सुनकर उसी समय पूर्णब्रह्म  ने अपने बेटे योगजीत का रूप बनाकर इस ज्योत निरंजन के लोक में आये और कहा ज्योत निरंजन आपने ये जो नीच काम किया इस सच्चे लोक में ऐसे दुष्ट पापआत्मा को श्राप लगता है | की एक लाख मनुष्य शरीरधारी जीवो का रोज आहार करेगा और सवा लाख जीवो की उत्पति करेगा ये आदेश दिया और कहा के इस सतलोक से अपने 21 ब्रह्मांड और पाँच तत्त्व व तीनो गुणों को और इस प्रकृति देवी को लेकर इस सतलोक से निकल जाओ इतना कहकर प्रकृति को इस ब्रह्म के पेट से निकाल दिया और सतलोक से निष्काषित कर दिया और प्रकृति को भी कहा की तुने इस काल के साथ जाने की स्वीकृति दी थी अभी इसके साथ रहकर तू अपनी सजा भोग इतना कहते ही 21 ब्रह्मांड पाँच तत्त्व तीनो गुण काल और माया वायुयान की तरह वहाँ से चल पड़े और सतलोक से 16 शंख कोस की दुरी पर 21 ब्रह्मांड व इन सबको लाकर शिथर कर दिया | परमात्माने अपनी शब्द शक्ति द्वारा फिर इस काल निरंजन के मन में वही नीचता फिर उत्तपन हुई और कहा की प्रकृति अब मेरा कोन क्या बिगाड़ सकता है अब में मनमाना करूँगा फिर प्रकृतिदेवी ने इसे प्रार्थना की ज्योत निरंजन मुझे पिताजी ने प्राणी उत्तपन करने की शक्ति दी हुई है तुम जितने जीव प्राणी कहोगे में उतने उत्पन कर दूंगी तुम मेरे साथ ये दुशकर्म मत करो लेकिन इस काल निरंजन ने प्रकृति की एक भी बात न मानकर प्रकृतिदेवी अर्थात दुर्गा से जबरदस्ती शादी कर ली |और एक ब्रह्मांड में इस काल ने तीन प्रधान स्थान बनाये अर्थात तीन गुण 1 रजोगुण 2 सतोगुण 3 तमोगुण फिर रजोगुण प्रधान क्षेत्र में अपनी पत्नी प्रकृति के साथ रहकर एक पुत्र की उत्पति की उसका नाम ब्रह्मा रखा और ब्रह्माजी में रजोगुण प्रकट हो गये |

सुनील भगत 

श्रुष्टि रचना:3

||अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार | तीन देव शाखा भये, पात रूप संसार|| 

तुझे ये तो तेरे किसी भी क्रिया धर्म धार्मिक क्रिया से तप से किसी भी जप से नहीं दूंगा हां यदि वो स्वयं कोई हंस आत्मा अपनी इच्छा से तेरे साथ कोई जाना चाहता है तो में स्वीकृति दे सकता हूँ वर्ना नहीं ये सुनकर ब्रह्म ज्योत स्वरूपी निरंजन अर्थात जो भविष्य में काल कह लाया ये हमारे पास आया आज हम जितनी भी दुखी आत्मा इसके 21 ब्रह्मां डो में पीड़ित है और फिर इस काल ने हमसे कहा की मेने तपस्या करके पिताजी से 21 ब्रह्मांड प्राप्त किये हे में वहा पर स्वर्ग बनाऊंगा महास्वर्ग बनाऊंगा और दूध की नदिया और झरने बहाऊंगा ऐसे हमको सपने दिखाये और हमको पूछा की आप मेरे साथ चलना चाहते हो तब हम सब ने कहा अगर पिताजी अनुमति दे तो हम चलने को तैयार है |फिर ये ब्रह्म पिताजी अर्थात पूर्णब्रह्म के पास गया और बोला इन सभी जीव आतमा ओं को में पूछकर आया हूँ वो सब मेरे साथ चलने के लिए तैयार है | ये सुनकर पिताजी अर्थात पूर्ण ब्रह्म जी हम सब आत्माओ के पास आकर पूछा इस ज्योत निरंजन के पास कोन कोन जाना चाहता है अपनी सहमति हमारे सामने व्यक्त करे | उस समय पि ताजी के सामने हम सब आत्मा घबरा गए और किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी अपनी स्वीकृति देने की फिर कुछ समय के बाद एक आत्मा ने सर्व प्रथम हिम्मत की और कहा की पिताजी में इस ब्रह्म के साथ जाना चाहता हूँ फिर पिताजी ने उस आत्माका अंक लिख लिया फिर इसको देखकर हम सभी आत्माओं ने ब्रह्म के साथ जाने की स्वीकृति दे दी जो आज हम इस ब्रह्म अर्थात काल की त्रिलोकी की कारागृह अर्थात कैद में बंद है |और बहुत दुखी भी है | फिर पिताजी अर्थात पूर्णब्रह्म ने ज्योत निरंजन को कहा की तुम अब अपने लोक में चले जाओ में इन सभी आत्माओ को विधिवत तेरे लोक में भेज दूंगा फिर सतपुरुष ने अपनी शब्द शक्ति से सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाली आत्माको एक लड़ की का रूप बनाया और उसको एक शब्द शक्ति भी दे दी और हम सभी जीव आत्माओं को उस लड़की के अंदर प्रवेश कर दिया उस लड़की का नाम प्रकृति अष्टगी महामाया आदि भी कहते है और आगे चल कर ये त्रिदेवोकी माता भी कहलायी फिर पिताजी ने इसको कहा बेटी मेने आपको शब्द की शक्ति दी है ये काल ब्रह्म जितने जीव कहे तू अपने शब्द से बना देना एक बार मुख से उचारण करेगी उतने ही नर मादा जोड़ी की जोड़ी उत्पन हो जायेंगे फिर सतपुरुष ने अपने पुत्र सहजदास को आज्ञा दी की अपनी बहन प्रकृति को लेकर जाओ और ज्योत स्वरूपी निरंजन के पास छोड़आओ और उसको कहना पिताजी ने प्रकृति को शब्द शक्ति दी हे जितने जीव तुम कहोगे ये बना देगी और जितनी भी आ त्माओ ने स्वीकृति दी थी उन सभी आत्माओं को इस प्रकृति देवी में प्रवेश कर दिया है फिर सहजदास प्रकृति देवी को लेकर ज्योतनिरंजन के पास गया और अपने पिताजी की आज्ञा अनुसार सारा काम कर के अपने द्वीप अर्थात लोक में लोट आया | 


सुनील भगत 

श्रुष्टि रचना:2

कोन ब्रह्मा के पिता है ? कोन विष्णु की माँ ? शंकर के दादा कोन है ?हमको दे बता?

एक युक्ति सुज्जि की क्यों न में अपना अलग राज्य बनाऊ मेरे सब अन्य भाई अलग अल ग एक एक द्वीप में अकेले रहते है और हम एक द्वीप में 3 रहते है अचिन्त, परब्रह्म और में ब्रह्म ज्योतनिरंजन ने ऐसा सोचकर पिताजी यानी पूर्णब्रह्म की 70 युग तक एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या की और जब ये ब्रह्म तपस्या कर रहा था हम सभी आत्मा जो आज काल के लोक में दुःख पा रहे है चाहे कोई देव बना है चाहे कोई महादेव बना है चाहे कोई शुकर बना है चाहे कोई गधा बना है चाहे कोई राजा बना है चाहे कोई रंक बना है पशु या पक्षी बना हुआ है ये सभी की सभी आत्माए हम इस काल अर्थात ब्रह्म के ऊपर आक्षक्त हो गए थे और वही बिमारी आज हमारे अन्दर विधमान है | यही परक्रिया जैसे ये नादान बच्चे किसी हीरो या हेरोइन को देख कर उनकी अदाओ के ऊपर इतने आक्ष्क्त हो जाते है अगर आस पास किसी शहर में वो हीरो अभीनेता या अभीनेत्री आजाये तो लाखो की संख्या में उनके द्रुशनार्थ भीड़ उमड़ जाये और लेना एक ना देने दो कुछ मिलना नहीं उन  से ऐसी वृति हमारी वहाँ बिगड़ी थी हम सतलोक में रहा करते थे अपने पिता के साथ कुछ दुःख नहीं था कोई मृत्यु नहीं थी हमारे परिवार थे हम प्यार से रहा करते थे लेकिन वहाँ हम अपने पतिव्रता पद से गिर गए अपने मूल मालिक उस पूर्णब्रह्म जो सदा सुखदाई जो सदासहाई आत्मा का आधार वास्तव में भगवान् है जो जीवो को दुखी नहीं करता जनम मरण के कष्ट में नहीं डालता कुत्ते और गधे नहीं बनाता उस पूर्ण ब्रह्म को छोड़कर हम इस काल ब्रह्म के उपर आक्ष्क्त हो गए थे |जब इस काल ने 70 युग तप कर लिया तब पूर्ण परमात्मा ने काल ब्रह्म से पूछा भाई क्या चाहता है तू तब इस ज्योत निरंजन काल ने   कहा की पिताजी जहाँ में रह रहा हूँ ये स्थान मुझे कम पड़ता है तथा मुझे अलग से राज्य दो तब उस पूर्णब्रह्म ने इस ब्रह्म के तप के बदले में 21 ब्रह्मांड प्रदान कर दिए जैसे 21 प्लाट दे देता है कोई साहूकार पिता अपने पुत्र को 21 ब्रह्मांडो को पाकर ये ज्योत निरंजन बड़ा प्रसन्न हुआ कुछ दिनों के बाद इसके मन में आया की इन ब्रह्मांडो में कुछ और रचना करू और उस के लिए अन्य सामग्री पिताजी से मांगू इस उदेश्य से इसने फिर 70 युग    तप किया फिर पूर्ण ब्रह्म ने पूछा ज्योत निरंजन अब क्या चाहते हो तुमको 21 ब्रह्मांड तो दे चूका हु तब इस ब्रह्म ने कहा की पिताजी में इन ब्रह्मांडो में कुछ अन्य रचना करना चाह   ता हूँ कृपया रचना करने की सामग्री भी दीजिये फिर सतपुरुष ने इस ब्रह्म को 5 तत्त्व     और 3 गुण और प्रदान कर दिये बाद में ब्रह्म ने सोचा की यहाँ कुछ जीव भी होने चाहिए और मेरा अकेले का मन कैसे लगेगा इस उदेश्य से फिर 64 युग तप किया सतपुरुष ने पूछा अब क्या चाहता है ज्योत निरंजन अब तुझे मेने जो माँगा सो दे दिया तब ब्रह्म ने कहा पिताजी मुझे जीव भी प्रदान करो मेरे अकेले का दिल कैसे लगेगा उस समय सतपुरुष  परमेशवर ने कहा की ज्योत निरंजन तेरे तप के बदले में राज्य दे सकता हूँ और ब्रह्मांड चाहिए वो दे सकता हूँ परन्तु ये अपनी प्यारी आत्मा अपना अंश नहीं दूंगा !

सुनील भगत 

श्रुष्टि रचना:1

||आये एको ही देश ते, उतरे एको ही घाट | समझो का मत एक है, मुरख बारा बाट||

सर्व प्रथम केवल एक ही प्रभु था जो परम अक्षर पुरुष  है | अर्थात पूर्णब्रम्ह जो चारो 
वेद पवित्र गीता व पवित्र कुरान में भी इसका स्पष्ट प्रमाण है | वो अकह अनामी अर्थात
(अनामय) लोक में रहता है | और हम सभी जीव प्राणी भी उसी परमेशवर में ही समाये हुए थे |
जिसको को इन नामो से भी जाना जाता है | निक्षरपुरुष परमअ
क्षरपुरुष शब्दस्वरूपीराम अकालमूरत पूर्णब्रह्म इत्यादि उसके बाद उस परमात्मा ने अप
ने अनामी लोक के नीचे स्वयं प्रकट होकर अपनी शब्द शक्ति से और तीन लोको की रचना की 1 अगमलोक 2 अलखलोक 3 सतलोक उसका नाम अगमलोक में अगमपुरुषअलखलोक में अलखपुरुष सतलोक में सतपुरुष और अकह:अनामी में परमअक्षरपुरुषअर्थात पूर्णब्रह्म यानी पूर्ण परमात्मा ऐसा जानो फिर सतलोक में आकर के उस परमेशवर ने अन्य रचना की जो इस प्रकार है सर्व प्रथम अपने एक शब्द से 16 द्वीपों की रचनाकी उसके बाद 16 शब्द फिर उचारण किये उनसे अपने 16 पुत्रो की उत्पति की उनकेनाम इस प्रकार है 1 कुर्म 2 धैर्य 3 दयाल 4 ज्ञानी 5 योगसंतायन 6 विवेक 7 अचिन्त8 प्रेम 9 तेज 10 जलरंगी 11 सुरति 12 आनन्द 13 संतोष 14 सहज 15 क्षमा 16निष्काम | ये सब निर्गुण प्रभु है |फिर पूर्ण परमात्माने अपने सभी 16 पुत्रो कोअपने अपने 16 द्वीपों में रहने की आज्ञा दी फिर अपने एक पुत्र अचिन्त को अन्य श्रुष्टिरचना करो मेरी शब्द शक्ति से ऐसी आज्ञा दी फिर अचिन्त ने श्रुष्टि की रचना का कामआरंभ किया सर्वप्रथम अक्षरपुरुष अर्थात परब्रह्म की उत्पति की और परब्रह्म से कहा सतलोक में सृष्टि की रचना करने में आप मेरा सहयोग दो | सतलोक में अमृत से भरा हुआमानसरोवर भी है | सतलोक में स्वांसो से शरीर नहीं है और वहा का जल भी अमृत है |एक दिन परब्रह्म मानसरोवर मेंप्रवेश कर गए और वहा आनंद से विश्राम करने लगे अक्षरपुरुष को निंद्रा आ गई और बहुत समय तक सोते रहे तब सतपुरुष ने अपनी शब्दशक्तिसे अमृत तत्त्व से एकअंडा बनाया और उसमे एक आत्मा को प्रवेश किया फिर उस अंडेको आत्मा सहित मानसरोवर में डाल दिया जब वो अंडा गड गड कर के मानसरोवर मेंनीचे जा रहा था उस आवाज से अक्षरपुरुष अर्थात परब्रह्म की निंद्रा भंग हुई और जब कोईअधूरी निंद्रा से जागता है उसके अन्दर कुछ कोप होता है | जैसे ही परब्रह्म कोप दृष्टी सेउस अंडे की तरफ देखा तो उस अंडे के दो भाग होकर उस में से एक क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्मनिकला इसको ज्योत स्वरूपी निरंजन भी कहते है वास्त व में इसका नाम कैल है औरयही आगे चल कर काल कहलाया फिर सतपुरुष ने आकाशवाणी की तुम दोनों परब्रह्मऔर ब्रह्म मानसरोवर से बाहर आजा ओ और दोनों अचिन्त के लोक में हम अचिन्त केलोक में जाकर रहने लगे | फिर बहुत समय के बाद इस क्षरपुरुष अर्थात ब्रह्म के मन में
एक युक्ति सुज्जि की क्यों न में अपना अलग राज्य बनाऊ  |


सुनील भगत