नवरात्र के चौथे दिन मां भगवती दुर्गा के कुष्मांडा स्वरुप की पूजा की जाती है । मान्यता ये है कि जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब कुष्माण्डा देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी । कु का अर्थ है 'कुछ ' , उष्मा का अर्थ है 'ताप ' , और अंडा का अर्थ यहां है ब्रह्माण्ड , सृष्टि अर्थात जिसके ऊष्मा के अंश से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वे देवी कुष्मांडा हैं जब चारों ओर अन्धकार था , समय की भी उत्पती नहीं हुई थी इसलिए ये सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं और यही वजह है कि मां के इस स्वरूप को कुष्मांडा नाम दिया गया । देवी कुष्मांडा का निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है जहां निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है । इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य के समान ही अलौकिक हैं । माता के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित होती हैं ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में मौजूद तेज मां कुष्मांडा की छाया है । मां कुष्माण्डा की आठ भुजाएं हैं इसलिए मां कुष्मांडा को अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता हैं । इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है । आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है । मां कुष्मांडा सिंह पर विराजमान हैं, मां कुष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं । इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है ।
सुनील भगत
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