यदि जीवित गुरु अच्छे मिलें तो हमें संतोष होगा। लेकिन गुरु का ठिकाना नहीं पड़े, तब तक मूर्ति के दर्शन करें। मूर्ति तो सीढ़ी है, उसे छोड़ना नहीं। जब तक अमूर्त प्राप्त नहीं हो जाए, तब तक मूर्ति छोड़ना नहीं। मूर्ति हमेशा मूर्त ही देगी। मूर्ति अमूर्त नहीं दे सकती। खुद का जो गुणधर्म हो वही करेगी! क्योंकि मूर्ति, वह परोक्ष भक्ति है। ये गुरु भी परोक्ष भक्ति है, लेकिन गुरु में जल्दी प्रत्यक्ष भक्ति होने का साधन है। जीवित मूर्ति हैं, वे। इसलिए प्रत्यक्ष हों वहाँ पर जाना। भगवान की मूर्ति के भी दर्शन करना, दर्शन करने में हर्ज नहीं है। उसमें अपनी भावना है और पुण्य बँधता है, इसलिए मूर्ति के दर्शन करें।
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015
गुरुवार, 24 दिसंबर 2015
साधना के लाभ
साधना आरंभ करने तथा उसमें निरंतरता बनाए रखने के अनेक लाभ हैं । वास्तव में साधना आरंभ करते ही हमें कुछ न कुछ लाभ अथवा सकारात्मक परिवर्तन अनुभव होने लगता है । प्रत्येक सकारात्मक परिवर्तन से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सुख बढने में अथवा दुख घटने में सहायता मिलती है ।
मन की संतुलित अवस्था
हम सभी अत्यंत गतिशील जीवन जीते हैं । इस गतिशील दिनचर्या से समय निकालकर कदाचित ही कभी कोई पीछे मुडकर अपने जीवन के बारे में व्यापक दृष्टिकोण से विचार करता है ।
इस चित्र में नीले रंग की रेखा यह दर्शाती है कि धीरे-धीरे बाह्य परिस्थितियों से असंतुलित होने का परिमाण घटने लगता है । वास्तव में हमारी भावनात्मक स्थिति अधिक अनुकूल होने लगती है और हम नकारात्मक तथा सकारात्मक परिस्थितियों का सामना शांति से कर पाते हैं । साधन के विषय में हमारे ज्ञान में वृद्धि होने के कारण जीवन को हम और अधिक दार्शनिक दृष्टिकोण से देखने लगते हैं ।
व्यक्तित्व का विकास
मूलभूत स्वभाव – अंतर्मन के संस्कारों के अनुसार
उपरोक्त चित्र मन को दर्शाता हैै । मन का १/१० वां भाग बाह्य मन है तथा ९/१० वां भाग अंतर्मन का है । जिस हिम शैल से टाइटैनिक जहाज टकराया था, उसके शिखर को देख कोई नहीं कह सकता था कि वह हिम शैल खतरनाक है, क्योंकि वास्तविक विपदा उस शिखर के नीचे बर्फ की ढेर से था । हमारे मन के साथ भी ठीक ऐसा ही है । हमारी भावनाएं और इच्छाएं मूलरूप से हमारे अंतर्मन में अनेक संस्कारों तथा केंद्रों में छिपी हुई हैं । इसके कुछ उदाहरण हैं :-
- वासना केंद्र
- स्वभाव केंद्र
- लेन-देन के हिसाब का केंद्र (संदर्भ के लिए लेख देखें ‘लेन-देन के नियम‘)
हमारा बाह्यमन इन संस्कारों तथा अंतर्मन के केंद्रों से अनभिज्ञ होता है; परंतु यही संस्कार तथा केंद्र हमारी क्रिया और प्रतिक्रिया का कारण तथा व्यक्तित्व का आधार होते हैं । वास्तव में हमारा व्यक्तित्व हमारे संस्कारों का दास है । क्या इस समस्या का समाधान है ? जी है, और जितना हम समझते हैं, उससे भी सरल है ! इसका विवरण विस्तार सहित ‘साधना ‘ भाग में है ।
मन कैसे कार्य करता है एवं संस्कार कैसे निर्माण होते हैं, इस विषय में अधिक जानकारी के लिए ‘मन की संरचना तथा कार्य ‘ लेख पढें ।
तीन सूक्ष्म-स्तरीय मूलभूत घटकों का (त्रिगुणों का) मूल स्वरूप एवं संकल्पना क्या है ?
इस लेख सम्बन्धी विस्तृत जानकारी हेतु कृपया यहां क्लिक करें
आधुनिक शास्त्रों के अनुसार लघु कणों में इलेक्ट्रॉन्स्, प्रोटॉन्स्, मेसॉन्स्, क्वॉर्क्स, ग्लुऑन्स् एवं न्यूट्रॉन्स् का समावेश होता है । जबकि अध्यात्म शास्त्र बताता है कि हम इनसे भी अधिक सूक्ष्म कणों अथवा घटकों से बने हैं । ये घटक सूक्ष्म होते हैं और सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) जैसे साधनों से भी नहीं दिखाई देते । इनका अनुभव केवल सूक्ष्म इंद्रियों से संभव है ।
इन सर्वाधिक सूक्ष्म कणों को त्रिगुण कहते हैं । इनकी रचना आगे दिए अनुसार है :
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अबसे हम इस स्तंभमें इन घटकोंका उल्लेख एकत्ररूपसे सत्त्व, रज, तम गुण तथा उनके विशेषणोंको सात्त्विक, राजसिक, तामसिक संबोधित करेंगें । उदाहरणार्थ, जब हम किसी व्यक्तिको सात्त्विक कहते है, तब उसका अर्थ है उसमें सत्त्वगुण अधिक है ।
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प्रत्येक व्यक्ति इन त्रिगुणों से बना है । तथापि इन त्रिगुणों का अनुपात प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होता है । वह उस व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगल्भता पर निर्भर करता है ।
आज विश्व में सामान्य व्यक्ति में तमगुण अधिक होता है । इन त्रिगुणों के विविध क्रम-परिवर्तन मनुष्य की मूल प्रकृति को परिभाषित करते हैं ।
जब व्यक्ति साधना करने लगता है, तब तमोगुण सत्त्वगुण में परिवर्तित होता है तथा रजोगुण की भी शुद्धि होती है ।
रजोगुण की शुद्धि-प्रक्रिया का आलेख नीचे दिया है ।
अशुद्ध रज वृत्तियां जो किसी समय अनियंत्रित क्रोध अथवा वासनाआें के रूपमें व्यक्त होती थीं, वे साधनाके कारण शुद्ध रजोगुणी अभिव्यक्तियों में परिवर्तित होती हैं । वह व्यक्ति रजोगुण का उपयोग रचनात्मक कार्यों के लिए करता है, जैसे – अन्यों की सहायता एवं ईश्वर की सेवा करना । साधना करने से व्यक्ति में सूक्ष्मू स्तरीय आंतरिक परिवर्तन होता है । इससे व्यक्तित्व में आमूल सुधार दिखाई देता है ।
सहनशक्ति बढना
हममें से प्रत्येक की शारीरिक, भावनात्मक अथवा मानसिक – कष्ट को सहन करने की शक्ति भिन्न होती है जीवन में कभी-कभी हम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं जो कष्टदायक होती हैं । यह परिस्थिति पीडादायक वैवाहिक संबंध से लेकर प्रियजनों को खो देने जैसी कुछ भी हो सकती है । कष्ट को सहन करने की शक्ति को निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है :-
एक महिला के अत्यधिक क्रोधित होने का कारण यह है कि बाल काटने काली प्रसाधिका ने उसके बाल उसकी अपेक्षा से अधिक काट दिए, इस कष्ट का प्रभाव बहुत दिनोंतक रहता है क्योंकि वह महिला अपने सभी मित्रों से इस बात की शिकायत करती है ।
वास्तविक जीवन से एक उदाहरण – यह उदाहरण उस महिला का है जिसने विवाह के कुछ दिनों के बाद अपना पति खो दिया, यद्यपि उसकी भीषण हानि हुई है; परंतु उसकी साधना के कारण प्राप्त आंतरिक शक्ति से वह न केवल अपना संयम बनाए रखती है अपितु अपने ससुरालवालों को भी धैर्य बंधाती है ।
पहले उदाहरण में एक छोटी सी घटना जैसे बालों का अपेक्षा से अधिक कट जाना तीव्र प्रतिक्रिया को जन्म देता है जबकि दूसरे उदाहरण में,एक बहुत बड़ी भीषण परिस्थिति जैसे प्रियजन को खो देने का बहुत संयमित व नियंत्रित होकर सामना किया जाता है । हम नहीं जानते कि कौन सी घटना हमें अनियंत्रित कर देगी, जबतक हम घटना का सामना नहीं करते । साधना करने से हमें हर परिस्थिति का सामना सहजता से करने की शक्ति मिलती है ।
मंत्र क्या है ?
मंत्र शब्दों का संचय होता है, जिससे इष्ट को प्राप्त कर सकते हैं और अनिष्ट बाधाओं को नष्ट कर सकते हैं । मंत्र इस शब्द में ‘मन्’ का तात्पर्य मन और मनन से है और ‘त्र’ का तात्पर्य शक्ति और रक्षा से है ।
अगले स्तर पर मंत्र अर्थात जिसके मनन से व्यक्ति को पूरे ब्रह्मांड से उसकी एकरूपता का ज्ञान प्राप्त होता है । इस स्तर पर मनन भी रुक जाता है मन का लय हो जाता है और मंत्र भी शांत हो जाता है । इस स्थिति में व्यक्ति जन्म-मृत्यु के फेरे से छूट जाता है ।
मंत्रजप के अनेक लाभ हैं, उदा. आध्यात्मिक प्रगति, शत्रु का विनाश, अलौकिक शक्ति पाना, पाप नष्ट होना और वाणी की शुद्धि।
मंत्र जपने और ईश्वर का नाम जपने में भिन्नता है । मंत्रजप करने के लिए अनेक नियमों का पालन करना पडता है; परंतु नामजप करने के लिए इसकी आवश्यकता नहीं होती । उदाहरणार्थ मंत्रजप सात्त्विक वातावरण में ही करना आवश्यक है; परंतु ईश्वर का नामजप कहीं भी और किसी भी समय किया जा सकता है ।
मंत्रजप से जो आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका विनियोग अच्छे अथवा बुरे कार्य के लिए किया जा सकता है । यह धन कमाने समान है; धन का उपयोग किस प्रकार से करना है, यह धन कमाने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है ।
ॐ मंत्र का जप
१. ॐ क्या है ?
ॐ को सभी मंत्रों का राजा माना जाता है । सभी बीजमंत्र तथा मंत्र इसीसे उत्पन्न हुए हैं । इसे कुछ मंत्रों के पहले लगाया जाता है । यह परब्रह्म का परिचायक है ।
२. ॐ के निरंतर जप का प्रभाव
ॐ र्इश्वर के निर्गुण तत्त्व से संबंधित है । र्इश्वर के निर्गुण तत्त्व से ही पूरे सगुण ब्रह्मांड की निर्मित हुई है । इस कारण जब कोई ॐ का जप करता है, तब अत्यधिक शक्ति निर्मित होती है ।
यदि व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर कनिष्ठ हो, तो केवल ॐ का जप करने से दुष्प्रभाव हो सकता है; क्योंकि उसमें इस जप से निर्मित आध्यात्मिक शक्ति को सहन करने की क्षमता नहीं होती ।
निम्नलिखित सारणी यह दर्शाती है कि केवल ॐ का जप, कौन कर सकता है ।
व्यक्ति | ॐ का जप करने हेतु आध्यात्मिक स्तर १ |
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पुरुष२ | ५० % |
शिशु को जन्म देनेवाली आयु से परे की स्त्री २ | ५० % |
शिशु को जन्म देनेवाली आयु की स्त्री २ | ६० % |
टिप्पणी :
१. यह जानकारी ध्यानपूर्वक और भावपूर्वक चार घंटे की तक ॐ का जप करनेवाले व्यक्ति से संबंधित है । भगवान के नाम के आगे ॐ लगानेवालों के लिए जैसे ॐ नमः शिवाय का जप करनेवालों पर यह लागू नहीं होता । एक सामान्य व्यक्ति (पुरुष अथवा स्त्री) ॐ नमः शिवाय का मंत्र जप, ॐ से बिना प्रभावित हुए कर सकता है ।
२. नियमित ॐ का जप करनेवाले कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति पर, ॐ से निर्मित आध्यात्मिक शक्ति का विपरीत प्रभाव हो सकता है । कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति को शारीरिक कष्ट जैसे अति अम्लता, शरीर के तापमान में वृद्धि इत्यादि अथवा मानसिक स्तर पर व्याकुलता हो सकती है । स्त्रियों के लिए हम विशेष रूप से सुझाना चाहेंगे कि उन्हें केवल ॐका जप नहीं करना चाहिए । ॐ से उत्सर्जित तरंगों से अत्यधिक शक्ति उत्पन्न होती है, जिससे भौतिक एवं सूक्ष्म उष्णता निर्मित होती है । इससे पुरुषों की जननेन्द्रियों पर कोई प्रभाव नहीं पडता, क्योंकि वे देह रिक्ति से बाहर होती हैं; परंतु स्त्रियों के प्रसंग में, ये उष्णता उनके जननांगों को प्रभावित कर सकती है क्योंकि स्त्रियों की जननेन्द्रियां पेट की रिक्ति के भीतर होती हैं । इसलिए उन्हें अत्यधिक मासिक स्राव (menstrual flow), मासिक स्राव न होना (amenorrhoea अर्थात absence of a menstrual period), मासिक स्राव के समय अत्यधिक वेदना होना (dysmenorrhoea अर्थात severe uterine pain during menstruation), गर्भधारण न होना (infertility) इत्यादि कष्ट हो सकते हैं । इसलिए जबतक कि गुरु अथवा संत विशेष रूप से करने के लिए नहीं कहते, स्त्रियों को केवल ॐ का जप नहीं करना चाहिए ।
३. विभिन्न स्थानों पर ॐ छापना
अध्यात्मशास्त्र का आधारभूत नियम कहता है कि, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध तथा उससे संबंधित शक्ति एकसाथ होती है । इसका अर्थ है कि जहां पर भी र्इश्वर का सांकेतिक रूप उपस्थित होता है, वहां उनकी शक्ति भी रहेगी । टी-शर्ट अथवा टेटू पर ॐ का चिन्ह होने से निम्नलिखित कष्टदायक अनुभव हो सकते हैं :
- कष्ट जैसे, अतिअम्लता, शारीरिक तापमान में वृद्धि आदि ।
- कष्ट जैसे व्याकुलता ।
अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ॐ के चिन्ह का कहीं भी चित्रण करना, र्इश्वर से संबंधित सांकेतिक चिन्हों के साथ खिलवाड करना है और इससे पाप लगता है ।
बीज मंत्र क्या है ?
एक बीजमंत्र, मंत्र का बीज होता है । यह बीज मंत्र के विज्ञान को तेजी से फैलाता है । किसी मंत्र की शक्ति उसके बीज में होती है । मंत्र का जप केवल तभी प्रभावशाली होता है जब योग्य बीज चुना जाए । बीज, मंत्र के देवता की शक्ति को जागृत करता है ।
प्रत्येक बीजमंत्र में अक्षर समूह होते हैं । उदाहरण के लिए – ॐ, ऐं,क्रीं, क्लीम्
देवता के नामजप एवं मंत्रजप में अंतर
१. देवता के नामजप तथा मंत्रजप में अंतर – प्रस्तावना
मंत्र के विषय से बहुत लोग आकर्षित होते हैं तथा बहुत बार नामजप और मंत्रजप को एक ही समझ लिया जाता है । नामजप और मंत्रजप दोनों में ही किसी अक्षर, शब्द, मंत्र अथवा वाक्य को बार बार दोहराया जाता है, इसलिए दोनो में अंतर करना कठिन हो सकता है । परंतु अध्यात्मशास्त्र के दृष्टिकोण से, दोनों में कई प्रकार से अंतर है और प्रस्तुत लेख में हमने नामजप एवं मंत्रजप में तुलनात्मक अंतर बताया है ।
२. मंत्र की परिभाषा
मंत्र शब्द की विभिन्न परिभाषाएं हैं, जो उसके आध्यात्मिक सूक्ष्म भेदों को समझाती हैं । सामान्यत: मंत्र का अर्थ है अक्षर, नाद, शब्द अथवा शब्दों का समूह; जो आत्मज्ञान अथवा ईश्वरीय स्वरूप का प्रतीक है । मंत्रजप से स्व-रक्षा अथवा विशिष्ट उद्देश्य साध्य करना संभव होता है । मंत्र को दोहराते समय विधि, निषेध तथा नियमों का विशेष पालन करना आवश्यक होता है । यह मंत्र तथा मंत्र साधना (मंत्रयोग) का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
३. नामजप की परिभाषा
नामजप अर्थात किसी भी देवता के नाम को बार-बार दोहराना । मंत्रजप की भांति नामजप पर किसी प्रकार से विधि, निषेध अथवा नियमों का बंधन नहीं रहता । इसे कभी भी और कहीं भी कर सकते हैं । नामजप साधना का मुख्य उद्देश्य है देवता के नाम में जो चैतन्य है वह ग्रहण कर आध्यात्मिक उन्नति करना । इसके साथ ही, जो अनिष्ट शक्तियां हमारी साधना में बाधा निर्माण करती हैं उनसे रक्षा करने के लिए नामजप एक शक्तिशाली उपाय है ।
प्रस्तुत सारणी के माध्यम से नामजप तथा मंत्रजप में तुलना की गई है :
नामजप तथा मंत्रजप में तुलना
विशेषता
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देवता का नामजप करना
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मत्रजप करना
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१. क्या बार-बार दोहराना आवश्यक है ?
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है
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है
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२. संकल्प१की आवश्यकता
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नहीं है
|
है२
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३. होम-हवन इत्यादि विधान
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नहीं होते
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होते हैं
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४. जपसंख्या की गिनती रखना
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रखना आवश्यक नहीं
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आवश्यक है क्योंकि मंत्रजप संख्यायुक्त होता है । गिनती न करने से हमें फलप्राप्ति नहीं होती ।३
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५. उद्देश्य
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सकाम अथवा निष्काम
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सकाम, स्व-रक्षा, शत्रु का नाश, सिद्धि प्राप्ति अथवा निष्काम
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६. गुरु द्वारा दीक्षा
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किसी देवता का नामजप करते समय उनके नाम में ही उस देवता की शक्ति होती है । इसलिए गुरु द्वारा दीक्षा की आवश्यकता नहीं होती ।
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गुरु द्वारा दीक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि गुरु के संकल्प से ही मंत्र में शक्ति आती है तथा मंत्र का योग्य उच्चारण भी गुरु सिखाते हैं ।
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७. विधि-निषेध का पालन
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नहीं होता ।
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होता है । विधि का उदाहरण है – मंत्र साधना के पूर्व स्नान करना, मंत्र के अनुष्ठान के समय दूध, फलाहार करना इ. । निषेध का उदाहरण मांसाहार न करना इ. ।
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८. योग्य उच्चारण का महत्त्व
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आवश्यक नहीं
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शुद्ध उच्चारण करने से ही लाभ होता है ।
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९. कब करें ?
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कभी भी, समय का बंधन नहीं ।
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विशिष्ट समय, उदाहरण गायत्रीमंत्र का उच्चारण सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय करने से अधिक लाभ होता है ।
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१०. कहां करें ?
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कहीं भी, जो स्थान सात्त्विक नहीं, वहां भी कर सकते हैं, उदा. स्नानगृह
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पवित्र स्थान पर ही उदाहरण घर, नदीतट , गोशाला, अग्निशाला, तीर्थक्षेत्र, उपास्यदेवता की मूर्ति के सामने इ.
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११. हानि
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नहीं होती
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अयोग्य उच्चारण से हानि ४ हो सकती है ।
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टिप्पणियां –
१. संकल्प की व्याख्या के लिए संकल्प , ब्रह्मांड की शक्तियों में से एक; इस लेख का संदर्भ लें ।
२. जालस्थल पर अथवा विभिन्न पुस्तकों में, हमें बहुत से मंत्र मिलते हैं, जो किसी विशेष उद्देश्य के लिए सुझाए गए होते हैं । विशेष लाभप्राप्ति हेतु हम उनमें से कुछ मंत्र स्वयं ही चुन लेते हैं । परंतु कोई मंत्र जब तक किसी संत द्वारा अथवा गुरु द्वारा न दिया गया हो तब तक उससे हमें कुछ भी लाभ नहीं होता अथवा मर्यादित स्तर पर ही लाभ होता है ।
३. किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले विभिन्न मंत्रों का निश्चित/विशिष्ट संख्या में जप करना चाहिए (उदा. १०८ अथवा १००८ बार) । गिनती न करने से हमें उससे काई लाभ नहीं होता ।
४. किसी भी मंत्र का परिणाम उसमें अंतर्भूत एवं कायर्रत पंचतत्त्व अथवा पंचतत्त्वों के अनुसार होता है । यदि मंत्रजप योग्य पद्धति से नहीं किया गया अथवा मनानुसार किया गया, तो हमें उसमें अंतर्भूत पंचतत्त्व से हानि हो सकती है । उदा. यदि मंत्र तेजतत्त्व से संबंधित है और हम उसे अपने मनानुसार बार-बार दोहराते हैं तो हमारी देह में उष्णता निर्मित होकर देह के किसी अंग अथवा उसके कार्य पर उसका दुष्परिणाम हो सकता है ।
४. वर्तमान काल में नामजप सर्वोत्तम साधना है
प्रत्येक युग के लिए ईश्वर ने विशेष साधना बताई है जिसे मनुष्य सरलता से उस युग में कर सकता है । आज का हमारा जीवन उस काल से बहुत भिन्न है, जब मनुष्य मंत्रजप साधना कर सकता था और सभी विधि-विधान का पालन भी करता था, जो उससे फलप्राप्ति हेतु आवश्यक थे । आज भागदौड भरे जीवन में तथा रज तम प्रधान वातावरण के कारण, साधना के अन्य योगमार्ग जैसे ध्यानयोग, कर्मकांड इत्यादि मार्ग से साधना करके आध्यात्मिक उन्नति करना कठिन है । इसलिए, सिद्धपुरुषों और संतों ने वर्तमान कलियुग में सबके लिए सरल व सर्वोत्तम साधना, नामजप साधना बताई है, जो साधना के छ: मूलभूत तत्त्वों के अनुरूप है और शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करने में सहायक है ।
५. सारांश
- जैसे कि नामजप और मंत्रजप दोनों में ही किसी अक्षर, शब्द, मंत्र अथवा वाक्य को बार बार दोहराया जाता है, दोनों में अंतर करना कठिन हो सकता है । वैसे, दोनों में कई प्रकार से अंतर है । सबसे बडा अंतर है कठोर विधि-विधान जिनका पालन मंत्रजप के समय करना होता है ।
- नामजप और मंत्रजप दोनों से ही आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं, परंतु कालानुसार नामसाधना ही बताई गई है जो आध्यात्मिक उन्नति हेतु वर्तमान युग की सर्वोत्तम साधना है ।
- जब तक संत अथवा गुरु हमें विशेष रूपसे कोई मंत्रजप करने के लिए नहीं बताते।
कुंडलिनी क्या है और कुंडलिनी जागृत कैसे होती है ?
१. देह में सूक्ष्म शक्ति की पद्धतियां क्या हैं ?
मात्र ईश्वर के अस्तित्व से ब्रह्मांड निरंतर बना हुआ है । कुंडलिनी योग के अनुसार, ईश्वर की शक्ति जो ब्रह्मांड को चलाती है उसे चैतन्य कहते है । एक व्यक्ति के विषय में, चैतन्य को चेतना कहते हैं और यह ईश्वरीय शक्ति का वह अंश है जो मनुष्य की क्रियाओं के लिए चाहिए होती है ।
यह चेतना दो प्रकार की होती है और अपनी कार्य करने की अवस्था के आधार पर, इसे दो नाम से जाना जाता है ।
- क्रियाशील चेतना – यह प्राण शक्ति भी कहलाती है । प्राण शक्ति स्थूल देह, मनोदेह, कारण देह और महाकारण देह को शक्ति देती है । यह चेतना शक्ति की सूक्ष्म नालियों द्वारा फैली होती है जिन्हें नाडी कहते हैं । यह नाडी पूरे देह में फैली होती हैं और कोशिकाओं, नसों, रक्त वाहिनी, लसिका (लिम्फ) इत्यादि को शक्ति प्रदान करती हैं । संदर्भ हेतु यह लेख देखें –मनुष्य किन घटकों से बना है ?
- सुप्त चेतना – जो कुंडलिनी कहलाती है । जब तक कुंडलिनी को नीचे दी विधि के अनुसार जागृत नहीं किया जाता तब तक यह कुंडलिनी व्यक्ति में सुप्त अवस्था में रहती है ।
नीचे दिए रेखा चित्र में आध्यात्मिक प्रगति के लिए कुल सूक्ष्म शक्ति का, प्राण शक्ति और कुंडलिनी शक्ति में विभाजन दर्शाया गया है ।
२. कुंडलिनी का क्या उपयोग है ?
कुंडलिनी अथवा सुप्त चेतना मुख्यत: आध्यात्मिक प्रगति करने के उपयोग में आती है । नित्य शारीरिक क्रियाओं के लिए कुंडलिनी का उपयोग नहीं होता तथा न ही यह उसमें सहभागी होती है ।
३. कुंडलिनी को कैसे जागृत करें ?
साधना अथवा शक्तिपात से कुंडलिनी जागृत होती है ।
३.१ साधना द्वारा कुंडलिनी जाग्रति
इसके अंतर्गत ईश्वर के लिए विभिन्न योग मार्गों द्वारा की गई साधना आती है जैसे कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग तथागुरुकृपायोग । हठयोग से की गई साधना के अंतर्गत ब्रह्मचर्य का पालन, प्राणायाम, यौगिक क्रियाएं तथा अन्य साधनाएं आती हैं ।
कुछ लोग हठयोग के द्वारा हठपूर्वक कुंडलिनी जागृत करने का प्रयास करते हैं, इसके घातक परिणाम हो सकते हैं । कुछ इससे विक्षिप्त तक हो जाते हैं ।
३.२ शक्तिपात
शक्तिपात योग अथवा शक्तिपात द्वारा आध्यात्मिक शक्ति एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को प्रदान की जाती है । मुख्यत: गुरु द्वारा अथवा उन्नत पुरुष द्वारा अपने शिष्य को प्रदान किया जाता है । मंत्र अथवा किसी पवित्र शब्द, नेत्रों से, विचारोंसे अथवा स्पर्श से धारक के आज्ञाचक्र पर शक्ति पात किया जा सकता है । यह योग्य शिष्य पर गुरु द्वारा की गई कृपा समझी जाती है । इस शक्तिपात से कुंडलिनी जागृत होने लगती है ।
जागृत होने के उपरांत, किस गति से कुंडलिनी ऊपर की दिशा में जाती है वह शिष्य के निरंतर और लगातार साधाना के बढते हुए प्रयासों पर निर्भर करता है ।
३.३ कुंडलिनी जागृत करने के उचित मार्ग
कोई भी साधना मार्ग हो, जब आध्यात्मिक प्रगति होती है तो कुंडलिनी जागृत होती है । SSRF साधना के छ: मूलभूत तत्वों के अनुसार साधना करने का सुझाव देता है जिससे सहज ही कुंडलिनी जागृत होती है । अप्रकट गुरु तत्व अथवा ईश्वरीय तत्व स्वयं से कुंडलिनी जागृत करता है । गुरुकृपा से जागृत होने पर यह अपने आप ही ऊपर की दिशा में यात्रा करने लगती है और साधक में आध्यात्मिक परिवर्तन करती है ।
यदि उसे साधक पर थोपा जाए जैसा कि शक्तिपात में होता है, जब किसी को एकदम से अधिक मात्रा में आध्यात्मिक शक्ति प्रदान की जाती है, तब वह अनुभव बहुत ही आनंददायी होता है तथा व्यक्ति उसका आदी हो जाता है, तब सिर्फ गुणात्मक और संख्यात्मक स्तर पर लगातार बढती हुई साधना ही आश्वस्त करती है कि निरंतर हो रही गुरु तत्व की कृपा कुंडलिनी को सही दिशा में लेकर जा रही है तथा साधक का विश्वास दृढ करती है ।
कुछ समान दृश्य उदाहरणों से इसे और अच्छे से समझ कर लेते हैं
- लगातार साधना करने का प्रयास करना वैसा ही है जैसे कि कठिन परिश्रम से स्वयं का भाग्य बनाना
- सीधे शक्तिपात से कुंडलिनी जागृत करना वैसा ही है जैसे किसी अरबपति के घर पर जन्म लेना जहां पिता पुत्र को तुरंत धन उपलब्ध करा कर देता है ।
दोनों में से, परिश्रम से कमाया गया धन (आध्यात्मिक धन) सदैव अधिक टिकनेवाला है और भविष्य में प्रगति के लिए एक विश्वसनीय विकल्प है ।
जैसे कि हृदय रक्तवहन तंत्र का मुख्य केंद्र है और तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) का मस्तिष्क है, वैसे ही सूक्ष्म शक्ति प्रणाली की भी विविध चक्र, नाडियां और वाहिनियां होती हैं ।
हमारे देह में ७२,००० सूक्ष्म नाडियां होती हैं । इन नाडियों में से तीन मुख्य सूक्ष्म-नाडियां हैं :
- सुष्मना नाडी, यह मध्य नाडी है और रीढ की हड्डीके मूल (मूलाधार चक्र) से लेकर सिर के ऊपर तक जाती है
- पिंगला नाडी अथवा सूर्य नाडी, यह नाडी सुष्मना नाडी के दांए से जाती है ।
- इडा नाडी अथवा चंद्र नाडी, यह नाडी सुष्मना नाडी के बांए से जाती है ।
प्राण शक्ति देह में सूर्य नाडी, चंद्र नाडी एवं अन्य छोटी नाडियों के माध्यम से संचार करती है । प्राण शक्ति सूर्य नाडी और चंद्र नाडी में बारी बारी से संचार करती है ।
कुंडलिनी एक आध्यात्मिक शक्ति है तथा यह सामान्य व्यक्ति में सुप्त अवस्था में, सर्पीले आकार में सुषुम्ना नाडी के मूल में (मूलाधार चक्र) रहती है । साधना से यह रीढ के मूल से ऊपर की ओर सुषुम्ना नाडी से होते हुए मस्तिष्कतक जाती है । जब वह ऐसा करती है तब कुंडलिनीमार्ग में प्रत्येक चक्र को जागृत करती हुई जाती है ।
जब कुंडलिनी सुषुम्ना नाडी से प्रवाहित होते हुए प्रत्येक चक्र से गुजरती है, तब एक पतला सूक्ष्म द्वार रहता है जिसे प्रत्येक चक्र पर खोलकर वह अपनी आगे की ऊपर की दिशा में यात्रा करती है । जब वह द्वार को बार बार धकेलती है तब कभी कभी सुष्मना नाडी के द्वारा उस चक्र पर आध्यात्मिक उर्जा का प्रमाण बढ जाता है । तब कहीं और जाने का मार्ग न मिलने पर वह आसपास की सूक्ष्म वाहिनियों में प्रवाहित होने लगती है और प्राण शक्ति में परिवर्तित होती है । उस समय व्यक्ति उस क्षेत्र से संबंधित महानतम क्रियाकलापों का अनुभव लेता है । उदाहरण के तौर पर प्राण शक्ति में वृद्धि अथवा स्वाधिष्ठान चक्र के आसपास की प्राण शक्ति काम वासना बढा देती है ।
जैसे कि हमने पहले ही चर्चा की है, किसी भी मार्ग से जाएं साधना करने से ही कुंडलिनी जागृत होती है । मार्ग के अनुसार हम उसे कैसे समझते हैं इसका संदर्भ बदल सकता है । उदाहरण के रूप में जब कुंडलिनी अनाहत चक्र से गुजरती है :
- भक्तिमार्ग के अनुसार कहा जाता है कि साधक का भाव जागृत हुआ है ।
- ज्ञानमार्ग के अनुसार साधक को दिव्य ज्ञान की अनुभूति होने लगती है ।
योगा पत्रिका में डेविड.टी. ईस्टमेन के १९८५ लेख के अनुसार, कुंडलिनी जागृति के सामान्य लक्ष्ण हैं :
- अपने आप झटके लगना अथवा कंपकंपाना
- अत्यंत उष्णता, विशेषकर जब चक्रों से शक्ति के प्रवाहित होने का अनुभव होता है ।
- सहज प्राणायाम, आसन, मुद्रा अथवा बंध
- विशेष चक्र से संबंधित दृश्य दिखाई देना अथवा नाद सुनाई देना
- दिव्यानंद की अनुभूति
- भावनात्मक शुद्धि जिसमें कोई एक विशेष भावना थोडे समय के लिए प्रबल हो जाती है ।
संदर्भ – Kundalini, Wikipedia.org, Sep 2010
संपादक की टिप्पणी – शक्तिपात के माध्यम से जब कुंडलिनी जागृत की जाती है तब इस प्रकार के परिणाम अधिक देखने को मिलते हैं । जो साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति के प्रति गंभीर हैं उन्हें सतर्क रहना चाहिए कि इस प्रकार के अनुभव बहुत ही वास्तविक और आकर्षक लगते हैं; परंतु ये प्रारंभिक परिणाम हैं और अचानक प्रदान की हुई आध्यात्मिक शक्ति के कारण अनुभव होते है । परंतु यह साधना का अंत नहीं है अथवा हमारे जीवन के लक्ष्य की अंतिम रेखा नहीं है ।
चक्र क्या हैं ?
चक्र, कुंडलिनी तंत्र की मध्यनाडी अर्थात सुषुम्ना नाडी पर स्थित ऊर्जाकेंद्र हैं । सुषुम्ना नाडी पर मुख्यतः सात कुंडलिनी चक्र होते हैं । ये चक्र शरीर के विभिन्न अंगों तथा मन एवं बुद्धि के कार्य को सूक्ष्म-ऊर्जा प्रदान करते हैं । प्रधानरूप से ये व्यक्ति की सूक्ष्मदेह से संबंधित होते हैं । ऊपर से नीचे की दिशा में ये चक्र इस प्रकार हैं :
क्रमांक
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कुंडलिनी चक्र का संस्कृत नाम
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कुंडलिनी चक्र का पश्चिमी नाम
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७
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सहस्रार-चक्र
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Crown chakra
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६
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आज्ञा-चक्र
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Brow chakra
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५
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विशुद्ध-चक्र
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Throat chakra
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४
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अनाहत-चक्र
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Heart chakra
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३
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मणिपुर-चक्र
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Navel chakra
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२
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स्वाधिष्ठान-चक्र
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Sacral chakra
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१
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मूलाधार-चक्र
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Root chakra
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विभिन्न चक्रों के स्थान नीचे आकृति के रूप में दर्शाए हैं ।
ब्रह्मरंध्र सहस्रार चक्र के ऊपर स्थित सूक्ष्म-द्वार है, जहां से ईश्वरीय शक्ति ग्रहण की जाती है । ब्रह्मरंध्र से कुंडलिनी के निकलने का अर्थ है आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत (संत-महात्मा) द्वारा ईश्वर से एकरूप हो जाना । इसी द्वार से आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत (संत-महात्मा) देहत्याग के समय शरीर छोडते हैं ।
गुरु किसे कहते हैं ?
विषय सूची
- सारांश
- १. प्रस्तावना
- २. उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरुकी व्याख्या
- ३. अध्यापक (शिक्षक) / प्राध्यापक और गुरु में अंतर
- ४. प्रवचनकार और गुरु में अंतर
- ५. गुरु और संत में क्या अंतर है ?
- मई २०१३ तक विश्व में संतों तथा गुरुओं की संख्या
- संत तथा गुरु में अंतर
- ६. देहधारी गुरु का महत्व क्या है ?
- देहधारी गुरु का महत्त्व
- देहधारी गुरु का महत्त्व
- ७. देहधारी गुरु के कुछ विशेष लक्षण
- ८. हम आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक को कैसे पहचाने और प्राप्त करें ?
- ९. सारांश
सारांश
किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु शिक्षक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं । इस लेख में उनकी गुण विशेषताएं और प्रमुख लक्षणों का विस्तृत विवेचन किया है ।
१. प्रस्तावना
यदि बच्चों से कहा जाए कि वे आधुनिक विज्ञान की शिक्षा किसी शिक्षक के बिना अथवा पिछले कई दशकों में प्राप्त ज्ञान के बिना ही ग्रहण करें तो क्या होगा ? यदि हमें जीवन में बार-बार पहिए का शोध करना पडे, तो क्या होगा ? हमें संपूर्ण जीवन स्वयं को शिक्षित करने में बिताना पडेगा । हम जीवन में आगे नहीं बढ पाएंगे और हो सकता है कि किसी अनुचित मार्ग पर चल पडें ।
विश्वमन और विश्वबुद्धि : जिस प्रकार ईश्वरद्वारा निर्मित मनुष्य, प्राणी आदिको मन एवं बुद्धि होती है, उसी प्रकार ईश्वरद्वारा निर्मित संपूर्ण विश्वके विश्वमन और विश्वबुद्धि होते हैं, जिनमें विश्वके सम्बंधमें पूर्णतः विशुद्ध (सत्य) जानकारी संग्रहित होती है । इसे ईश्वरीय मन तथा बुद्धि भी कहा जा सकता है । जैसे ही किसीका आध्यात्मिक विकास आरंभ होने लगता है, उसके सूक्ष्म मन एवं बुद्धि विश्वमन एवं विश्वबुद्धिमें विलीन होने लगते हैं । इसी माध्यमसे व्यक्तिको ईश्वरकी निर्मितीका ज्ञान पता चलने लगता है ।
हमारी आध्यात्मिक यात्रा में भी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है । किसी भी क्षेत्र के मार्गदर्शक को उस क्षेत्र का प्रभुत्व होना आवश्यक है । अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का अध्यात्म शास्त्र में अधिकार (प्रभुत्व) होता है, उसे गुरु कहते हैं ।
एक उक्ति है कि अंधों के राज्य में देख पाने वाले को राजा माना जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से दृष्टिहीन और अज्ञानी समाज में, प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय से संपन्न गुरु ही वास्तविक अर्थों से दृष्टि युक्त हैं । गुरु वे हैं, जो अपने मार्गदर्शक की शिक्षा के अनुसार आध्यात्मिक पथ पर चलकर विश्व मन और विश्व बुद्धि से ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं । आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु किसे कह सकते हैं और उनके लक्षण कौन से हैं, यह इस लेखमें हम स्पष्ट करेंगे ।
२. उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरुकी व्याख्या
२. उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरुकी व्याख्या
जिस प्रकार किसी देश की सरकार के अंर्तगत संपूर्ण देश का प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से चलने हेतु विविध विभाग होते हैं, ठीक उसी प्रकार सर्वोच्च ईश्वरीय तत्त्व के विविध अंग होते हैं । ईश्वर के ये विविध अंग ब्रह्मांड में विशिष्ट कार्य करते हैं ।
जिस प्रकार किसी सरकार के अंर्तगत शिक्षा विभाग होता है, जो पूरे देश में आधुनिक विज्ञान सिखाने में सहायता करता है, उसी प्रकार ईश्वर का वह अंग जो विश्व को आध्यात्मिक विकास तथा आध्यात्मिक शिक्षा की ओर ले जाता है, उसे गुरु कहते हैं । इसे अदृश्य अथवा अप्रकट (निर्गुण) गुरु (तत्त्व) अथवा ईश्वर का शिक्षा प्रदान करने वाला तत्त्व कहते हैं । यह अप्रकट गुरु तत्त्व पूरे विश्व में विद्यमान है तथा जीवन में और मृत्यु के पश्चात भी हमारे साथ होता है । इस अप्रकट गुरु की विशेषता यह है कि वह संपूर्ण जीवन हमारे साथ रहकर धीरे-धीरे हमें सांसारिक जीवन से साधना पथ की ओर मोडता है । गुरु हमें अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार अर्थात ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार (चाहे वह हमें ज्ञात हो या ना हो) मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा (दया) जैसे गुण (कौशल) विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं । ये सभी गुण विशेष (कौशल) अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी आध्यात्मिक यात्रा में टिके रहनेकी दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं । जिनमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन है, उनके लिए गुरुतत्त्व अधिक कार्यरत होता है और उन्हें अप्रकट रूप में उनकी आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन करता है ।
विश्व में बहुत ही कम लोग सार्वभौमिक (आध्यात्मिक) साधना करते हैं जो औपचारिक और नियमबद्ध धर्म / पंथ के परे है । इनमें भी बहुत कम लोग साधना कर (जन्मानुसार प्राप्त धर्म के परे जाकर) ७०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करते हैं । अप्रकट गुरुतत्त्व, उन्नत जीवों के माध्यम से कार्य करता है, जिन्हें प्रकट (सगुण) गुरु अथवा देहधारी गुरु कहा जाता है । अन्य शब्दों में कहा जाए, तो आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु बननेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ७०% होना आवश्यक है । देहधारी गुरु मनुष्य जाति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के दीप स्तंभ की भांति कार्य करते हैं और वे ईश्वर के विश्व मन और विश्व बुद्धि से पूर्णतः एकरूप होते हैं ।
२.१ गुरु शब्द का शब्दशः अर्थ (व्युत्पत्ति)
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है । इसके दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार से हैं :
गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है ।
रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता (मिटाता) है ।
रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता (मिटाता) है ।
संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।
३. अध्यापक (शिक्षक) / प्राध्यापक और गुरु में अंतर
निम्नांकित सारणी शिक्षक और देहधारी गुरु में अंतर प्रस्तुत करती है ।
शिक्षक | गुरु |
एक निश्चित समय-सीमा के लिए पढाते हैं | दिन भर २४ घण्टे ज्ञान देते हैं |
शब्दों के माध्यमसे पढाते हैं | शब्दों से तथा शब्दों के परे(शब्दातीत) ज्ञान देते हैं |
विद्यार्थी के व्यक्तिगत जीवन से कोई लेना-देना नहीं | शिष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण का ध्यान रखते हैं |
कुछ ही विषय पढाते हैं | अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान देते हैं जिसमें सभी विषय समाहित हैं |
४. प्रवचनकार और गुरु में अंतर
अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है । लोगों को मार्गदर्शन करने की उनकी पद्धतियों में विद्यमान अंतर संबंधी विस्तृत विवेचन निम्नांकित सारणी में है ।
वर्तमान युग के अधिकांश प्रवचनकारों का आध्यात्मिक स्तर ३०% होने के कारण वे जिन धर्म ग्रंथों का संदर्भ देते हैं, वे न तो उनका भावार्थ समझ पाते हैं और न ही उसमें जो लिखा होता है उसकी उन्हें अनुभूति होती है । अतः उनके द्वारा दर्शकों को / श्रोताओं को भटकाने की संभावना अधिक होती है ।
५. गुरु और संत में क्या अंतर है ?
५.१ व्यक्ति किन गुणों के कारण संत की तुलना में श्रेष्ठ गुरु पद प्राप्त करने के लिए पात्र होता है ?
प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है । केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है।
निम्नांकित सारणी दर्शाती है कि मई २०१३ में पूरे विश्व में कितने संत और गुरु थे ।
मई २०१३ तक विश्व में संतों तथा गुरुओं की संख्या
स्त्रोत : अध्यात्म शास्त्र शोध संस्थान द्वारा १६ मई २०१३ को संचालित आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त आंकडे | |||
आध्यात्मिक स्तर | संतों१ की संख्या | गुरुओं २ की संख्या | कुल |
---|---|---|---|
६० – ६९%३ | ३,५०० | १,५०० | ५,००० |
७० – ७९% | ५० | ५० | १०० |
८० – ८९% | १० | १० | २० |
९० – १००% | ५ | ५ | १० |
टिप्पणियां
- जिस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ७०% अथवा उससे अधिक है, उन्हे संत कहते हैं । संत समाज के लोगों में साधना करने की रूचि निर्माण कर उन्हे साधना पथ पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।
- गुरु साधकों के मोक्ष प्राप्ति तक के मार्गदर्शन का संपूर्ण दायित्व लेते हैं तथा वह प्राप्त भी करवा देते हैं ।
- ७०% आध्यात्मिक स्तर से न्यून स्तर के व्यक्ति को संत नहीं समझा जाता; किंतु ६० से ६९% के मध्य में हमने कुल ५००० साधक दर्शाए हैं । ६० से ६९% के मध्य के स्तर के व्यक्ति (साधक) संत अथवा गुरु बनने के मार्ग पर होते हैं । अर्थात उनमें संत अथवा गुरु बनने की पात्रता होती है । इस वर्ग के साधक यदि साधना जारी रखते हैं, तो उनमें से ७०% (अर्थात ३५००) संत होंगे और ३०% (अर्थात १५००) गुरु होंगे ।
५.२. संत और गुरु में क्या समानताएं होती हैं?
- संत और गुरु, दोनों का आध्यात्मिक स्तर ७०% से अधिक होता है ।
- इन दोनों में मानव जाति के प्रति आध्यात्मिक प्रेम (प्रीति), अर्थात निरपेक्ष प्रेम होता है ।
- इन दोनों का अहंकार अत्यल्प होता है । अर्थात वे अपने अस्तित्व को पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि तक ही सीमित न कर (देहबुद्धि) आत्मा तक अर्थात भीतर के ईश्वर तक (आत्म बुद्धि) व्याप्त करते हैं ।
५.३ संत और गुरु की गुण विशेषताओं में (लक्षणों में) क्या अंतर होता है ?
निम्नांकित सारणी ८०% स्तर के संत और गुरु में स्थूल स्तर पर (साधारण) तुलना दर्शाती है ।
संत तथा गुरु में अंतर
संत | गुरु | |
---|---|---|
अन्यों के प्रति प्रेम भाव का %१ | ३०% | ६०% |
सेवा २ | ३०% | ५०% |
त्याग ३ | ७०% | ९०% |
लेखन गुणवत्ता ४ स्वभाव ५ | २% आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रमाण अधिक | १०% आध्यात्मिक मार्गदर्शन का भाग अधिक |
प्रकट शक्ति ६ | २०% | ५% |
आध्यात्मिक उन्नति७ | शीघ्र | अत्याधिक शीघ्र |
टिप्पणियां (उपर्युक्त सारणी के लाल अंकों पर आधारित)
- दूसरों से प्रेम करने का अर्थ है, दूसरों पर बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करना (निरपेक्ष प्रेम)। यह प्रेम अपेक्षा युक्त सांसारिक प्रेम से भिन्न होता है, । १००% का अर्थ है, बिना किसी शर्त के, भेदभाव विहिन, सर्वव्यापी ईश्वरीय प्रेम, जो ईश्वर द्वारा निर्मित सभी विषय वस्तुओं को, उदाहरण के लिए निर्जीव वस्तुओं से लेकर चींटी जैसे छोटे से प्राणिमात्र से लेकर सबसे बडे प्राणिमात्र मनुष्य तक को व्याप्त करता है ।
- सेवा का अर्थ है, सत की सेवा (सत्सेवा) अथवा अध्यात्म शास्त्र की सेवा, जो पूरे विश्व को नियंत्रित करते हैं और सभी धर्मों के मूलभूत अंग हैं । यहां पर १००% का अर्थ है, उनके १००% समय का तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक क्षमताओं का सत्सेवा के लिए त्याग करना ।
- त्याग का अर्थ है कि समय, देह, मन और संपत्ति का (धन का) उन्होंने ईश्वर की सेवा हेतु कितना त्याग किया है ।
- अध्यात्म शास्त्र का (अंतिम सत्य का) ज्ञान प्रदान करने वाले अथवा प्रसार करने वाले ग्रंथों का लेखन करना ।
- संतो एवं गुरुओं द्वारा किया लेखन क्रमशः आध्यात्मिक अनुभूतियों संबंधी तथा आध्यात्मिक मार्गदर्शन संबंधी होता है ।
- ईश्वर का कार्य मात्र उनके अस्तित्व से होता है । उन्हें कुछ प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उनकी शक्ति प्रकट स्वरूप में नहीं होती । शक्ति का स्वरूप अप्रकट होता है, जैसे कि शांति, आनंद इ. । किंतु संत और गुरु (स्थूल) देहधारी होने से वे प्रकट शक्ति का कुछ मात्रा में उपयोग करते हैं ।
- अहंका सरल अर्थ है कि, अपने आपको ईश्वरसे भिन्न समझना एवं अनुभव करना ।गुरु ईश्वर के अप्रकट रूप से अधिक एकरूप होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकट शक्ति के प्रयोग की विशेष आवश्यकता नहीं होती । गुरु की तुलना में संतों में अहं की मात्रा अधिक होने से संत गुरु की तुलना में प्रकट शक्ति का अधिक मात्रा में उपयोग करते हैं । परंतु अतिंद्रिय शक्तियों का प्रयोग कर ऐसा ही कार्य करने वालों की तुलना में यह अत्यल्प होता है । उदा. जब कोई व्यक्ति उसकी व्याधि से किसी संत के आशीर्वाद के कारण मुक्त हो जाता है, तब प्रकट शक्ति २०% होती है; किंतु इसी प्रसंग में जो व्यक्ति संत नहीं है, किंतु अतिंद्रिय (हिलींग) शक्ति से मुक्त करता है, तब यही मात्रा ५०% तक हो सकती है । ईश्वर की प्रकट शक्ति ०% होने के कारण, किसी के द्वारा प्रकट शक्ति का उपयोग करना ईश्वर से एकरूप होने के अनुपात से संबंधित है । अतः जितनी प्रकट शक्ति अधिक, उतने ही हम ईश्वर से दूर होते हैं । प्रकट शक्ति के लक्षण हैं – तेजस्वी और चमकीली आंखें, हाथों की तेज गतिविधियां इ.
- निर्धारित कार्य करने के लिए आवश्यक प्रकट शक्ति संत और गुरु को ईश्वर से मिलती है । कभी-कभी संत उनके भक्तों की सांसारिक समस्याएं सुलझाते हैं, जिसमें अधिक शक्ति की आवश्यकता होती है । गुरु शिष्य का ध्यान आध्यात्मिक विकास में केंद्रित करते हैं, जिससे शिष्य उसके जीवन में आध्यात्मिक कारणों से आने वाली समस्याआें पर मात करने के लिए आत्म निर्भर हो जाता है । परिणामतः गुरु अत्यल्प आध्यात्मिक शक्ति का व्यय करते हैं ।
- संत एवं गुरु का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ७०% होता है । ७०% आध्यात्मिक स्तर पार करने के उपरांत गुरु में संत की तुलना में आध्यात्मिक विकास की गति अधिक होती है । वे सद्गुरु का स्तर (८०%) और परात्पर गुरु का स्तर, इसी स्तर के संतों की तुलना में शीघ्रता से प्राप्त करते हैं । यह इसलिए कि वे निरंतर अपने निर्धारित कार्य में, अर्थात शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाने में व्यस्त रहते हैं; जब कि संत भी उनके भक्तों की सहायता करते हैं; किंतु सांसारिक विषयों में ।
६. देहधारी गुरु का महत्व क्या है ?
हममें से प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक, वैद्य, अधिवक्ता आदि से उनके संबंधित क्षेत्र में मार्गदर्शन लेता है । यदि इन साधारण विषयों में मार्गदर्शक की आवश्यकता लगती है, तो कल्पना करें कि जो हमें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाते हैं, उस गुरु का महत्त्व कितना होगा ।
६.१. विद्यार्थी को शिक्षा देने के परिप्रेक्ष्य में गुरु का महत्व
गुरु अनेक रूपों में आते हैं । वे हमें परिस्थिति के माध्यम से, ग्रंथों के माध्यम से, देहधारी मनुष्य के माध्यम से तथा अन्य अनेक माध्यमों से सीखाते हैं । निम्नांकित सारणी में गुरु के विविध स्वरूपों में तुलना कर दिखाई है और देहधारी गुरु का महत्त्व अधोरेखित किया है :-
देहधारी गुरु का महत्त्व
गुरु के रुप | गुरु के अभाव में | ||||
---|---|---|---|---|---|
देहधारी | पुस्तक | मूर्ति/चित्र | अन्य / जीवन में आने वाले प्रसंग | ||
शिष्य की क्षमता के अनुसार ज्ञान देना | संभव | असंभव | असंभव | असंभव | – |
शंकाओं का समाधान | शंका के प्रारंभ होने के साथ ही | अत्याधिक अध्ययन के बाद भी कुछ ही सीमा तक संभव | असंभव | असंभव | – |
श्रद्धा निर्मित होने हेतु आवश्यक अवधि | बहुत कम | अधिक | और अधिक | बहुत अधिक | – |
प्रोत्साहनात्मक शिक्षण तथा परिक्षा | संभव | असंभव | असंभव | असंभव | – |
बीच में ही साधना छोडने वाले शिष्यों की संख्या | कम | अधिक | अत्यधिक | अधिक | अधिक |
आध्यात्मिक उन्नति हेतु लगने वाला समय | कम | अधिक | अत्यधिक | अधिक | अधिक |
मानस शास्त्र के अनुसार गुरु से साम्य रखने वाला शिष्य का व्यक्तिमत्त्व | जिसे मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता है | स्वतंत्र स्वाभाव वाला | जिसे सहायता की आवश्यकता है | स्वतंत्र स्वाभाव वाला | स्वतंत्र स्वभाव की मात्रा अधिक |
६.२ मानसिक दृष्टि से गुरु का महत्व
आध्यात्मिक मार्गदर्शक देहधारी होने से शिष्य को मानसिक स्तर पर अनेक लाभ होते हैं ।
- ईश्वर एवं देवताएं अपना अस्तित्व और क्षमता प्रकट नहीं करते; किंतु गुरु (तत्त्व) अपने आपको देहधारी गुरु के माध्यम से प्रकट करता है । इस माध्यम से अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी को (शिष्य के) उसकी अध्यात्म (साधना) यात्रा में उसकी ओर ध्यान देने के लिए देहधारी मार्गदर्शक मिलते हैं ।
- देहधारी गुरु अप्रकट गुरु की भांति सर्व ज्ञानी होते हैं और उन्हें अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है, इसका ज्ञान उन्हें विश्व मन एवं विश्व बुद्धि के माध्यम से होता है । विद्यार्थी द्वारा गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है ।
- गुरु शिष्य में न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है । पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।
६.३ अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से गुरु का महत्व
निम्नांकित सारणी साधक / शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से गुरु (तत्त्व) के देहधारी होने का महत्त्व प्रतिपादित करती है ।
देहधारी गुरु का महत्त्व
गुरु के रुप | गुरु के अभाव में | ||||
---|---|---|---|---|---|
देहधारी | पुस्तक | मूर्ति/चित्र | अन्य/ जीवन में आने वाले प्रसंग | ||
साधना में रूकावट निर्माण करने वाले प्रारब्ध, क्रियामाण कर्म को कम करने तथा अनिष्ट शक्तियों की बाधा दूर करने सम्बंधि मार्गदर्शन | संभव | असंभव | असंभव | असंभव | – |
गुरु के सानिध्य में रहने से उनके दिव्य चैतन्य का लाभ | संभव | असंभव | कम | असंभव | – |
गुरु कृपा के लाभ | संभव | असंभव | कम | असंभव | – |
यह लाभ ग्रहण करने हेतु साधारणत: शिष्य का आध्यात्मिक स्तर (% में) | ५५ % १ | ४०% | ६० % २ | ३०% | – |
शिष्य / साधक द्वारा किए जाने वाले प्रयत्न (% में) | ६० % ३ | ७०% | ७०% | ७०% | १०० % |
शिष्य में आवश्यक गुण | सत्सेवा तथा त्याग | अंतर्निहित अर्थ समझ पाए ४ | अंत:करण से मार्गदर्शन मिलना | प्रकार पर निर्भर है | अत्यधिक अहं ५ |
प्रति वर्ष होने वाली आध्यात्मिक उन्नति | २-३% | ०.२५ % | ०.२७ % | ०.२५ % | ०.००१ % ६ |
टिप्पणियां (उपर्युक्त सारणी के लाल अंकों पर आधारित) :
- लगभग ५५% आध्यात्मिक स्तर पर विद्यार्थी / शिष्य में गुरु के देहधारी अस्तित्व का लाभ उठाने की दृष्टि से पर्याप्त आध्यात्मिक परिपक्वता निर्माण होती है । यह अध्यात्म में शिष्य (छात्र) वृत्ति प्राप्त करने समान है । गुरु के द्वारा ईश्वर प्राप्ति के संदर्भ में किए मार्गदर्शन का उचित लाभ करवाने की स्थिति आध्यात्मिक परिपक्वता के इस स्तर पर शिष्य में विकसित होती है ।
- किसी मूर्ति के माध्यम से लाभ करवाना तुलनात्मक दृष्टि से कुछ कठिन होता है । किसी मूर्ति अथवा चित्र द्वारा प्रक्षेपित गुरु के सूक्ष्म और बुद्धिअगम्य स्पंदन ६०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति के लिए, जिसकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय जागृत हुई है, लाभप्रद होते हैं ।
- जब कोई देहधारी गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करता है, तब आध्यात्मिक प्रगति के लिए न्यूनतम प्रयत्न करने पडते हैं क्योंकि वे उचित पद्धतिसे किए जाते हैं । अन्यथा चूकें करने की संभावना अधिक होती है ।
- धर्म ग्रंथों का भावार्थ (गूढ अर्थ) समझ पाना कोई सरल बात नहीं है । अधिकांश समय पर धर्म ग्रंथों और पुस्तकों में अनुचित अर्थ निकाला जाने की आशंका होती है ।
- यहां पर अहं का अर्थ है आत्म विश्वास । यदि किसी के पास अधिक आत्म विश्वास नहीं होगा, तो उसके लिए किसी के मार्गदर्शन के अभाव में आध्यात्मिक प्रगति करना असंभव है ।
- आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा नीचले स्तर पर आने की संभावना होती है ।
७. देहधारी गुरु के कुछ विशेष लक्षण
- गुरु धर्म के परे होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं । संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते । जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है, ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की से प्रतीक्षा में रहते हैं ।
- गुरु किसी को धर्मांतरण करनेके लिए नहीं कहते । सभी धर्मों के मूल में विद्यमान वैश्विक सिद्धांतों को समझ पाने के लिए वे शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाते हैं ।
- शिष्य / साधक किसी भी मार्ग अथवा धर्म के अनुसार मार्गक्रमण करें, अंत में सभी मार्ग गुरुकृपायोग में विलीन हो जाते हैं।
गुरु का कार्य संकल्प की आध्यात्मिक शक्ति के माध्यम से होता है । ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति से वे पात्र शिष्य की उन्नति मात्र शिष्य की उन्नति हो इस विचार के माध्यम से करवाते हैं । अध्यात्म शास्त्र का साधक / शिष्य देहधारी गुरु की कृपा के और मार्गदर्शन के बिना ७०% आध्यात्मिक स्तर पर नहीं पहुंच पाता । इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक उन्नति के आरम्भ के चरणों में, हमारी उन्नति केवल साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर हो सकती है । किंतु विशिष्ट चरण के उपरांत आध्यात्मिक ज्ञान इतना सूक्ष्म होता जाता है कि कोई भी उसकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) द्वारा दिग्भ्रमित हो सकता है । इसलिए सभी को संत बनने तक की आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर अचूकता से मार्गक्रमण करने के लिए अति उन्नत देहधारी गुरु की आवश्यकता होती है ।
- संत का स्तर प्राप्त करने पर भी सभी को गुरुकृपा का स्रोत सदैव बनाए रखने के लिए अपनी आध्यात्मिक साधना जारी रखनी पडती है ।
- संपूर्ण आत्म ज्ञान होने तक वे शिष्य की उन्नति करते रहते हैं । छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय ग्रहण क्षमता) द्वारा जो लोग माध्यम बनकर सूक्ष्म देहों से (आत्माएं) सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसके यह विपरीत है । जब कोई केवल माध्यम होकर कार्य करता है, तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती ।
- गुरु और शिष्य के संबंध पवित्र (विशुद्ध) होते हैं और गुरु को शिष्य के प्रति निरपेक्ष और बिना शर्त प्रेम होता है ।
- सर्वज्ञानी होने से शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है ।
- तीव्र प्रारब्ध पर मात करना केवल गुरुकृपा से ही संभव होता है ।
- गुरु शिष्य को साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं । वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते ।
- गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं । उदा. शिष्य की आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार गुरु भक्ति गीतों का (भजनों का) गायन, नामजप, सत्सेवा इत्यादि में से किसी भी साधना मार्ग से साधना बताते हैं । मद्यपान मत करो, इस प्रकार से आचरण मत करो आदि पद्धतियों से वे नकारात्मक मार्गदर्शन कभी नहीं करते । इसका कारण यह है कि कोई कृत्य न करें, ऐसा सीखाना मानसिक स्तर का होता है और इससे आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से कुछ साध्य नहीं होता । गुरु शिष्य की साधना पर ध्यान केंद्रित करते हैं । ऐसा करने से कुछ समय के उपरांत शिष्य में अपने आप ही ऐसे हानिकर कृत्य त्यागने की क्षमता निर्माण होती है ।
- मेघ सर्वत्र समान वर्षा करते हैं, जब कि पानी केवल गढ्ढों में ही एकत्र होता है और खडे पर्वत सूखे रह जाते हैं । इसी प्रकार गुरु और संत भेद नहीं करते । उनकी कृपा का वर्षाव सभी पर एक समान ही होता है; परंतु जिनमें सीखने की और आध्यात्मिक प्रगति करने की शुद्ध इच्छा होती है, वे गढ्ढों समान होते हैं, जो कि कृपा और कृपा के लाभ ग्रहण करने में सफल होते हैं ।
- गुरु सर्वज्ञानी होने के कारण अंतर्ज्ञान से समझ पाते हैं कि शिष्य की आगामी आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है । वे प्रत्येक को भिन्न-भिन्न मार्गदर्शन करते हैं ।
८. हम आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक को कैसे पहचाने और प्राप्त करें ?
साधना करने वाले शिष्य के लिए गुरु की क्षमता का अनुमान लगाना कठिन है । यह शिष्य द्वारा गुरु की परीक्षा करने समान है ।
जो विश्व पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि के परे है, उस विश्व को SSRF 'सूक्ष्म विश्व' अथवा 'आध्यात्मिक आयाम' कहता है । सूक्ष्म विश्व देवदूत, अनिष्ट शक्तियां, स्वर्ग आदि अदृश्य विश्व से संबंधित है जिसे केवल छ्ठवीं इंद्रिय के माध्यम से समझा जा सकता हैं | ।
किसी व्यक्ति की परीक्षा करने के लिए हमारी पात्रता उससे अधिक होनी चाहिए । गुरु की परीक्षा करने के लिए शिष्य ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु की क्षमता सूक्ष्म अथवा आध्यात्मिक स्तर पर, अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन, बुद्धि की समझ के परे होती है । इसका मापन अतिजागृत छठवी ज्ञानेंद्रिय द्वारा ही संभव होता है ।
इससे सामान्य मनुष्य असमंजस में पड जाता है कि किसका मार्गदर्शन लें ।
स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाऊंडेशन सुझाव देता है कि गुरु की खोजमें नहीं जाना चाहिए । अपना आध्यात्मिक मार्गदर्शक किसे बनाना है, इस संदर्भ में सोचने की आध्यात्मिक परिपक्वता लभगभ किसी के भी पास नहीं होती है ।
सात्त्विक बुद्धिमें प्रधान घटक सत्त्व होता है और ऐसी बुद्धि साधना करनेसे प्राप्त होती है । सांसारिक (मायासंबंधी) विषयोंमें प्रयोग करनेकी अपेक्षा वह अब ईश्वरकी सेवामें और आध्यात्मिक प्रगति करनेके लिए समर्पित होती है । जबतक बुद्धि सात्त्विक नहीं होती, तबतक धार्मिक ग्रंथोंका भावार्थ समझ पाना कठिन होता है ।
स्पष्टता से समझ पाने की क्षमता का विकास करने के लिए व्यक्ति द्वारा अध्यात्म शास्त्र के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार नियमित रूप से साधना करना आवश्यक होता है । इससे आध्यात्मिक प्रगति के साथ बुद्धि भी सात्त्विक होगी । सर्वव्यापी निर्गुण (अप्रकट) गुरु तत्त्व का अथवा ईश्वर द्वारा शिक्षा प्रदान करने वाले तत्त्व का हमारी ओर सदैव ध्यान होता है । जब व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५५% के आसपास होता है, तब देहधारी गुरु उसके जीवन में आते हैं । (वर्तमान युग के लोगों का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर २०% होता है ।) ५५% आध्यात्मिक स्तर पर अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी में (शिष्य में) वह परिपक्वता होती है कि वह सात्त्विक बुद्धि द्वारा खरे गुरू को पहचान सके ।
८.१ पाखंडी अथवा अनाधिकारी गुरु
८.१ पाखंडी अथवा अनाधिकारी गुरु
आज के समाजमें ८०% गुरु पाखंडी अथवा अनाधिकारी होते हैं । अर्थात उनका आध्यात्मिक स्तर ७०% से बहुत ही कम होता है और वे विश्व मन और विश्व बुद्धि के संपर्क में नहीं होते । कुछ प्रसंगों में ऐसे व्यक्तियों में साधना द्वारा प्राप्त किसी सिद्धि के कारण सहस्रो लोगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है ।
उदा. ५०% स्तर के किसी व्यक्ति को गत जन्म की साधना से प्राप्त सिद्धि के कारण बचपन से ही व्याधियों पर उपाय कर संभव होता होगा । वर्तमान युग में लगभग पूरे मानव वंश का आध्यात्मिक २०-२५% के आसपास होने से कोई संत है अथवा नहीं यह स्पष्टरूप से पहचानने की उसमें क्षमता नहीं होती । अतः जो व्यक्ति उसकी व्याधि ठीक करता है अथवा कोई चमत्कार करता है, ऐसे व्यक्ति का वह अनुयायी बन जाता है ।
सामान्य मनुष्य के हित के लिए हमने खरे गुरु कैसे नहीं होते हैं, ऐसे कुछ सूत्रों की सूची बनाई है । ये कुछ सूत्र हैं, जो पाखंडी आध्यात्मिक मार्गदर्शकों को आपकी बुद्धि द्वारा पहचानने में और उनकी परीक्षा करने में आपकी सहायता करेंगे । ये कुछ घटनाएं (उदाहरण) हैं, जहां ऐसे पाखंडी गुरुओं ने अपनी पोल अपने ही आचरण से खोल दी है ।
१. दूसरों में हीन भावना निर्माण करने वाले और अपनी विद्वत्ता का बडप्पन का दिखावा करने का प्रयत्न करनेवाले गुरु :
दंडवत करने के लिए आए लोगों से एक संत उनका नाम और उनकी आयु पूछते थे । एक बार उन्होंने कहा, दोनों उत्तर चूक हैं । नाम और आयु देह से संबंधित है । तुम आत्मा हो । आत्मा का कोई नाम नहीं है और आयु भी । तत्पश्चात वे अध्यात्म शास्त्र के संदर्भ में बातें करते थे और पूछते थे, क्या तुम आध्यात्मिक साधना करते हो ? यदा कदाचित कोई सकारात्मक उत्तर दे देता, तो वे पूछते थे, कौन सी साधना करते हो ? यदि कोई कहता, मेरे गुरु के द्वारा बताई साधना, तो वे कहते थे, तुम्हारी आयु और नाम के बारे में पूछे गए सरल प्रश्न का भी उत्तर तुम नहीं दे सके, तो तुम्हारे गुरु ने तुम्हें क्या सीखाया है ? केवल खरे गुरु ही ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं । मेरे पास आओ । मैं तुम्हें बताऊंगा ।
ऐसे पाखंडी गुरु से यह कहना चाहिए, असल में आपका प्रश्न ही निरर्थक था ! आपकी देहबुद्धि अधिक होने के कारण आपने मुझे मेरे नाम और आयु के बारे में पूछा था, इसलिए मैंने भी देहबुद्धि रखते हुए उत्तर दिया ।
यह कैसे गुरु हैं, जो प्रथम दर्शन में ही समझ नहीं पाते कि किसी के गुरु हैं अथवा नहीं, अथवा किसी की साधना उचित ढंग से हो रही है अथवा नहीं ?
२. संपत्ति और स्त्री के प्रति आसक्त गुरु
३. धोखे में रखना
समय तथा घडी के पट्टे के बंधन में न रहने के लिए एक गुरु घडी का उपयोग नहीं करते थे । किंतु प्रति १५-२० मिनट में दूसरों को पूछा करते थे, कितने बजे हैं ?
४. प्रसिद्धी की लालसा
जिन्हें गुरु बनने की इच्छा होती है और कुछ सीमा तक जिनकी आध्यात्मिक प्रगति हुई है, ऐसे कुछ लोग दूसरों को किसी न किसी प्रकार की साधना बताते रहते हैं । लगभग सभी उदाहरणों में वे जैसा बोलते हैं, वैसा आचरण उनका नहीं होता है । परिणाम स्वरूप यह देखा गया है कि जो साधक उनके बताए अनुसार साधना करने लगते हैं, उनकी प्रगति होने लगती है और तथाकथित गुरु वैसे के वैसे ही रह जाते हैं ।
५. शिष्यों को अपने पर निर्भर करना
कुछ गुरुओं को भय लगता है कि यदि वे पूरा आध्यात्मिक ज्ञान अपने शिष्यों को दे डालेंगे, तो उनका महत्त्व अल्प होगा । इसलिए वे शिष्यों को पूरा ज्ञान नहीं देते ।
९. सारांश
इस लेख द्वारा हमें निम्न प्रमुख सूत्रों से सीखना है ।
- गुरु ७०% आध्यात्मिक स्तर से अधिक स्तर के मार्गदर्शक होते हैं ।
- गुरु की खोजमें न जाएं, क्योंकि लगभग सभी प्रसंगों में आप जिसकी खोज में है वह व्यक्ति गुरु ही हैं, यह आप स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं कर पाएंगे ।
- इसकी अपेक्षा अध्यात्म शास्त्र के मूलभूत छः सिद्धांतों के अनुसार आध्यात्मिक साधना करें । इससे आपको आध्यात्मिक परिपक्वता के उस चरण तक पहुंचने में सहायता होगी, जिससे पाखंडी गुरु के द्वारा धोखा देने से बचना संभव होगा ।
- संत पद प्राप्त करना, अर्थात ७०% आध्यात्मिक स्तर गुरुकृपा के बिना संभव नहीं है ।
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