सोमवार, 7 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 02

हिंदी अनुवाद :
पहले अध्याय में गीतोक्त उपदेश की प्रस्तावना के रूप में दोनों सेनाओं के महारथियों और उनकी शंखध्वनि वर्णन करके अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं में स्थित स्वजन समुदाय को देखकर शोक और मोह के कारण युद्ध से अर्जुन के निवृत्त हो जाने की और शस्त्र – अस्त्रों को छोड़कर विषाद करते हुए बैठ जाने की बात कहकर उस अध्याय की समाप्ति की गयी । प्रस्तुत अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते है कि ‘हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा ? क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं ।
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से कौन – सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं । इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए ।’
यह सुनकर श्रीभगवान बोले – ‘हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचनों को कहता है, परंतु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए भी पंडितजन शोक नहीं करते । सर्दी – गर्मी और सुख – दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर । नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत – दृश्यवर्ग व्याप्त है ।
इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है । इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं । इसलिए हे अर्जुन ! तू युद्ध कर । अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है । अपने – आप प्राप्त हुए और शुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं । किंतु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा । या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा ।
इस कारण हे अर्जुन ! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा । जय – पराजय, लाभ – हानि और सुख – दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो । जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भली – भांति पार कर जाएगी, उस समय तू सूने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा’ ।
इस प्रकार से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मोह – माया को त्यागकर उनके कर्तव्य का बोध कराया और उनके सवालों के जवाब देकर मार्गदर्शन कर उनको युद्ध के लिए प्रेरित किया ।

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सुनील भगत 

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