बुधवार, 16 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 13

हिंदी अनुवाद :-
बारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने सगुण और निर्गुण के उपासकों की श्रेष्ठता के विषय में प्रश्न किया था, उसका उत्तर देते हुए भगवान ने संक्षेप में सगुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके निर्गुण उपासना का स्वरूप, उसका फल और देहाभिमानियों के लिए उसके अनुष्ठान में कठिनता का निरुपष किया । तदंतर सगुण उपासना का महत्तव, फल, प्रकार और भगवद्भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते - करते ही अध्याय की समाप्ति हो गयी, निर्गुण का तत्त्व, महिमा और उसकी प्राप्ति के साधनों को विस्तारपूर्वक नहीं समझाया गया । अतएव तेरहवां अध्याय निर्गुण - निराकार का तत्त्व अर्थात् ज्ञान योग का विषय भलीभांति समझाने के लिए अध्याय का आरंभ किया जाता है । इसमें पहले भगवान क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के लक्षण बतलाते हैं और क्षेत्रज्ञ और परमात्मा की एकता करते हुए ज्ञान के लक्षण का निरूपण करते हैं । तुम सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जानों और क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है, वह ज्ञान है - ऐसा मेरा मत है ।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार - भ्रम का नाश हो जाता है और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के स्वरूप आदि को भलीभांति विभागपूर्वक समझाने के लिए भगवान कहते हैं कि श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव. दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना,श्रमाभाव, मन - वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा - भक्तिसहित गुरु की सेवा, बाहर - भीतर की शुद्धि, अंत:करण की स्थिरता और मन इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह । इस लोक और परलोक सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बार - बार विचार करना । पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चिंता का सम रहना । मुझ परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना । अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना - यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है - ऐसा कहा है ।
जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभांति कहंगा । वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही । इस प्रकार ज्ञेय तत्त्व के वर्णन की प्रतिज्ञा करके उस तत्त्व का संक्षेप में वर्मन किया गया , परंतु वह ज्ञेय तत्त्व बड़ा गहन है । अत: साधकों को उसका ज्ञान कराने के लिए सर्वव्यापकत्वादि लक्षणों के द्वारा उसी का पुन: विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं - ज्ञेयस्वरूप परमात्मा को सब ओर से हाथ, पैर आदि समस्त इंद्रियों की शक्तिवाला बतलाने के बाद अब उसके स्वरूप की अलौकिकता का निरूपण करते हैं । वह सम्पूर्ण इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है, तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण - पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है । वह चराचर सब भूतों के बाहर - भीतर परिपूर्ण है, और चर - अचर रूप भी वहीं है । और वह सुक्ष्म होने से अविज्ञेय है और अति समीप में और दूर में भी स्थित वहीं है । इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है । वहीं साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होने से अनुमंता, सबका धारण - पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदन होने से परमात्मा - ऐसा कहा गया है । इस प्रकार पुरुषों और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता । इस प्रकार गुणों के सहित प्रकृति और पुरुष के ज्ञान का महत्त्व सुनकर यह इच्छा हो सकती है कि ऐसा ज्ञान कैसे होता है । इसलिए अब भिन्न - भिन्न अधिकारियों के लिए तत्त्व ज्ञान के भिन्न - भिन्न साधनों का प्रतिपादन करते हैं । परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मंद बुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्त्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तहानुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को नि:संदेह तर जाते हैं ।
परमात्मासंबंधी तत्त्वज्ञान के भिन्न - भिन्न साधनों का प्रतिपादन करके जो ‘यादृश’ पद से क्षेत्र के स्वभाव को सुनने के लिए कहा था, उसके अनुसार भगवान उस क्षेत्र को उत्पत्ति - विनाशशील बतलाकर उसके स्वभाव का वर्णन करते हुए आत्मा के यथार्थ तत्त्व को जाननेवाले की प्रशंसा करते हैं । जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वहीं यथार्थ देखता है ।
इस प्रकार आत्मा को सब प्राणियों में समभाव से स्थित, निर्विकारऔर अकर्ता बतलाया जाने पर यह शंका होती है कि समस्त शरीर में रहता हुआ भी आत्मा उनके दोषों से निर्लिप्त और अकर्ता कैसे रह सकता है; इस शंका का निवारण करने के लिए अब भगवान क्षेत्रज्ञ का प्रबाव सुनने का संकेत किया गया था, उसके अनुसार अनीदि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्तित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है ।
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता । जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है । इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्यसहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान - नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं ।

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सुनील भगत 

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