सोमवार, 14 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 12

हिंदी अनुवाद :-
इस बारहवें अध्याय में अनेक प्रकार के साधनों सहित भगवान की भक्ति का वर्णन करके भगवद्भक्तों के लक्षण बतलाए गए हैं। इसका उपक्रम और उपसंहार भगवान की भक्ति में ही हुआ है। केवल तीन श्लोकों में ज्ञान के साधन का वर्णन है, वह भी भगवद्भक्ति और ज्ञानयोग की परस्पर तुलना करने के लिए ही है; अतएव इस अध्याय का नाम 'भक्तियोग' रखा गया है।
दूसरे अध्याय से लेकर छठे अध्याय तक भगवान ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण-साकार परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक तो विशेष रूप से सगुण-साकार भगवान की उपासना का महत्व दिखलाया है। इसी के साथ पांचवें अध्याय में सतरहवें से छब्बीसवें श्लोक तक, छठे अध्याय में चौबीसवें से उनतीसवें तक, आठवें अध्याय मे ग्यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण-निराकार की उपासना का महत्व भी दिखलाया है। आखिर ग्यारहवें अध्याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्य भक्ति का फल भगवत्प्राप्ति बतलाकर 'मत्कर्मकृत्' से आरंभ होनेवाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार स्वरूप भगवान के भक्त की विशेष रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन है, इसी जिज्ञासा के अनुसार अर्जुन पूछ रहे हैं -
जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं - उन दोनों के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर उसके उत्तर में भगवान सगुण-साकार के उपासकों को उत्तम बतलाते हैं -
श्री भगवान बोले - मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।
यहां श्री भगवान ने सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बतलाया. इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्या निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक उत्तम योगवेत्ता नहीं हैं? इस पर श्री भगवान कहते हैं -
परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सब में समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति दु:खपूर्वक प्राप्त की जाती है.
परंतु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं, हे अर्जुन! मुझमें चित्त लगाने वाले उन प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं. मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है. यदि तू मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर.
यदि तू उपर्युक्त अभ्यास मे भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा. इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा. यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करनेवाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर.
मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है.
जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहिर, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दु:खों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट है, मन-इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है ऐर मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है - वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है.
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष ऐर उद्वेगादि से रहित है - वह भक्त मुझको प्रिय है. जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दु:खों से छूटा हुआ है - वह सब आरम्भों का त्याही मेरा भक्त मुझको प्रिय है.
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है - वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है. जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सरदी, गरमी और सुख-दु:खादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है.
जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है - वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है.
परंतु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं.

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सुनील भगत 

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