हिंदी अनुवाद :-
चौथे अध्याय में कर्मयोग की परंपर बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है । अर्जुन ने भगवान से जन्मविषयक प्रश्न करने पर भगवान ने अपने और अर्जुन के बहुत जन्म होने की बात और उन सबको मैं जानता हूं तुम नहीं कहकर तत्व, रहस्य, समय और निमित्तों का वर्णन किया है । भगवान के जन्म – कर्मों को दिव्य समझने का और भगवान के आश्रित होने का फल भगवान की प्राप्ति बतलाया गया है । भगवान ने बहुत प्रकार से विहित कर्मों के आचरण की आवश्यकता का प्रतिपादन करके अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग की विधि से ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके भगवदर्पणबुद्धि से कर्म करने की आज्ञा दी । उसके बाद उस सिद्धांत के अनुसार कर्म करने वालों की प्रशंसा और न करने वालों की निंदा करके राग – द्वेष के वश में होने के लिए कहते हुए स्वधर्म पालन पर जोर दिया ।
तत्पश्चात अर्जुन के पूछने पर अध्याय समाप्ति पर्यन्त काम को सारे अनर्थों का हेतु बतलाकर बुद्धि के द्वारा इंद्रियों और मन को वश में करके उसे मारने की आज्ञा दी, परंतु कर्मयोग का तत्व बड़ा ही गहन है, इसलिए अब भगवान ने पुन: कर्मयोग की परंपरा को बतलाकर उसकी अनादिता सिद्ध करते हुए प्रशंसा कि है । अर्जुन को प्रभु ने निष्काम भाव से कर्म करने की आज्ञा दी । किंतु कर्म – अकर्म का त्तव समझे बिना मनुष्य निष्काम भाव से कर्म नहीं कर सकता, इसलिए अब भगवान ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना किए जाने वाले दिव्य कर्मों का तत्व भली भांति समझाने के लिए कर्मतत्व की दुर्विज्ञेयता और उसके जानने का महत्तव प्रकट किया ।
मनुष्य मान सकता है कि शास्त्रविहित करने योग्य कर्मों का नाम कर्म है और क्रियाओं के स्वरूप से त्याग कर देना ही अकर्म है – इसमें मोहित होने की कौन – सी बात है और इन्हें जानना क्या है ? किंतु इतना जान लेने मात्र से ही वास्तविक कर्म – अकर्म का निर्णय नहीं हो सकता, कर्मों के तत्व को भली भांति समझने की आवश्यकता है ।
अंत में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि जिसने कर्मयोग की विधि समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अंत:करण वाले पुरुश को कर्म नहीं बांधते । इसलिए तुम्हें हृदय में स्थित इस अज्ञान जनित अपने संशय का विवेक ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जाओ और युद्ध के लिए खड़े हो जाओ ।
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सुनील भगत
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