सोमवार, 14 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 11

हिंदी अनुवाद :-
दसवें अध्याय में भगवान ने अपने विभूति तथा योगशक्ति का और उनके जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन करके भक्तियोग और उसके फल का निरूपण किया । इसपर अर्जुन ने भगवान की स्तुति करके उनसे दिव्य विभूतियों का और योगशक्ति विस्तृत वर्णन करने के लिए प्रार्थना की । तब भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन समाप्त करके अंत में योगशक्ति प्रभाव बतलाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने एक अंश में धारण हुआ कहकर अध्याय का उपसंहार किया । इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन के मन में स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने की इच्छा उत्पन्न हो गयी । इसलिए अध्याय के आरंभ में भगवान की और उनके उपदेश की प्रशंसा करते हुए अर्जुन उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना करते हुए बोले कि मुझपर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन अर्थात् उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है । क्योंकि मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति औप प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है । आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परंतु आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर - रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं ।
यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य - ऐसा आप मानते हैं तो उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराएं । परम श्रद्धालु और परम प्रेमी अर्जुन के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान अपने विश्वरूप का वर्णन करते हुए उसे देखने के लिए अर्जुन को आज्ञा देते हैं कि अब तुम मेरे सैकड़ो - हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृति वाले अलौकिक रूपों को देखों । इस प्रकार बार - बार अपना अद्भुत रूप देखने के लिए आज्ञा देने पर भी जब अर्जुन भगवान के रूप को नहीं देख सके तब उसके न देख सकने के कारण को जानने वाले अंतर्यामी भगवान अर्जुन को दिव्यदृष्टि देने की इच्छा करके कहने लगे कि मुझको तुम इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में नि:संदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूं, उससे तुम मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देखों । इस प्रकार कहकर उसके पश्चात अर्जुन को परम ऐश्वर्य युक्त दिव्य स्वरूप दिखलाया ।अनेक मुख और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनोंवाले, बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाए हुए, दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किए हुए और दिव्य गंध का सारे शरीर में लेप किे हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त सीमा रहित और सब ओर मुख किए हुए विराटस्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा । आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विस्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो । पांडुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात पृथक - पृथक सम्पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा । उसके अनंन्तर वह आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा - भक्ति सहित सिरसे प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला ।
उपर्युक्त प्रकार से हर्ष और आश्चर्य से चकित अर्जुन अब भगवान के विश्वरूप में दिख पड़ने वाले दृश्यों का वर्णन स्तवन करते हैं -
अर्जुन बोले - मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्ना को, महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूं । आपको मैं मुकुट युक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूं ।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आफ ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं । ऐसा मेरा मत है । आपको बहुत मुख और नेत्रों वाले. बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहुत उदारों वाले और बहुत सी दाढ़ों के कारण अत्यंत विकराल महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं क्योंकि आकाश को स्पर्श करने वाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंत:करण वाला मैं धीरज और शांति नहीं पाता हूं । वो सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदायसहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भाष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब - के - सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं ।
यह सुनकर श्रीप्रभु बोले कि मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं । इश समय इन लोकों को नष्टकरने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं । इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने पर भी िन सबका नाश हो जाएगा । मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्वरूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे के द्वारा देखा जा सकता हूं ।
इसप्रकार भगवान ने अपने विश्वरूप को संपरण करके, चतुर्भुज रूप के दर्शन देने के पश्चात जब स्वाभाविक मानुषरूप से युक्त होकर अर्जुन को आश्वासन दिया, तब अर्जुन सावधान होकर कहने लगे कि आपके इस अति शांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूं और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूं ।
जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है - इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं न वेदों से, न तप से , न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूं । जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है..वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है ।

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सुनील भगत 

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