सोमवार, 7 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 01

हिंदी अनुवाद :

पांडवों के राजसूययज्ञ में उनके महान ऐश्वर्य को देखकर दुर्योधन के मनमें बड़ी भारी जलन पैदा हो गयी और उन्होंने शकुनि आदि की सम्मति से जुआ खेलने के लिए युधिष्ठिर को बुलाया और छल से उनको हराकर उनका सर्वस्व हर लिया । अंत में यह निश्चय हुआ कि युधिष्ठिरादि पांचों भाई द्रौपदी – सहित बारह वर्ष वन में रहें और एक साल छिपकर रहें ,इस प्रकार तेरह वर्ष तक समस्त राज्यपर दुर्योधन का अधिपत्य रहे और पांडवों के एक साल अज्ञातवास का भेद न खुल जाए तो तेरह वर्ष के बाद पांडवों का राज्य उन्हें लौटा दिया जाए । इस निर्णय के अनुसार तेरह साल बिताने के बाद जब पांडवों ने अपना राज्य वापस मांगा तब दुर्योधन ने साफ इनकार कर दिया । उन्हें समझाने के लिए द्रउपद के, ज्ञान और अवस्था में वृद्ध पुरोहित को भेजा गया, परंतु उन्होंने कोई बात नहीं मानी । तब दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी ।
भगवान श्रीकृष्ण को रण – निमंत्रण देने के लिए दुर्योधन द्वारका पहुंचे, उसी दिन अर्जुन भी वहां पहुंच गये । दोनों ने जाकर देखा – भगवान अपने भवन में सो रहे हैं । उन्हें सोते देखकर दुर्योधन उनके सिरहाने एक मुल्यवान आसनपर जा बैठे और अर्जुन दोनों हाथ जोड़कर नम्रता के साथ उनके चरणों सामने खड़े हो गए । जानते ही श्रीकृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा और फिर पीछे की ओर मुड़कर देखने पर सिरहा ने की ओर बैठे हुए दुर्योधन दीख पड़े । भगवान ने दोनों का स्वागत – सत्कार किया और उनके आने का कारण पूछा । तब दुर्योधन ने कहा – ‘मुझमें और अर्जुन में आपका एक सा ही प्रेम है और हम दोनों ही आपके संबंधी हैं, परंतु आपके पास पहले मैं आया हूं, सज्जनों का नियम है कि वे पहले आनेवाले की सहायता किया करते हैं । सारे भूमंडल में आज आप ही सब सज्जनों में श्रेष्ठ और सम्माननीय हैं, इसलिए आपको मेरी ही सहायता करनी चाहिए’ । भगवान ने कहा – ‘नि:संदेह, आप पहले आए हैं, परंतु मैंने पहले अर्जुन को ही देखा है । इसलिए मैं दोनों की सहायता करूंगा । परंतु शास्त्रानुसार बालकों की इच्छा पहले पूरी की जाती है, इसलिए पहले अर्जुन की इच्छा ही पूरी करनी चाहिए । मैं दो प्रकार से सहायता करूंगा । एक ओर मेरी अत्यंत बलशालिनी नारायणी – सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं, युद्ध न करने का प्रण करके, अकेला रहूंगा, मैं शस्त्र का प्रयोग नहीं करूंगा । अर्जुन ! धर्मानुसार पहले तुम्हारी इच्छा पूर्ण होनी चाहिए, अतएव दोनों में से जिसे पसंद करो, मांग लो !’ इस पर अर्जुन ने शत्रुनाशन नारायण भगवान श्रीकृष्ण को मांग लिया । तब दुर्योधन ने उनकी नारायणी – सेना मांग ली और उसे लेकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गए ।
इसके बाद भगवान ने अर्जुन से पूछा - ‘अर्जुन ! जब मैं युद्ध ही नहीं करूंगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी – सेना को छोड़ दिया और मुझको स्वीकार किया ? अर्जुन ने कहा – भगवन् ! आप अकेले ही सबका नाश करने में समर्थ हैं, तब मैं सेना लेकर क्या करता ? इसके सिवा बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि आप मेरे सारथी बनें, अब इस महायुद्ध में मेरी इच्छा को आप अवश्य पूर्ण कीजिए’ । भक्तवत्सल भगवान ने अर्जुन के इच्छानुसार उनके रथ के घोड़े हांकने का काम स्वीकार किया । इसी प्रसंग के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और युद्धारंभ के समय कुरुक्षेत्र में उन्हें गीता का दिव्य उपदेश सुनाया । अस्तु ।
दुर्योधन और अर्जुन के द्वारका से वापस लौट आने पर जिस समय दोनों ओर की सेना एकत्र हो चुकी थी, उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं हस्तिनापुर जाकर हर तरह से दुर्योधन को समझाने की चेष्टा की, परंतु उन्होंने स्पष्ट कह दिया – ‘मेरे जीते जी पांडव कदापि राज्य नहीं पा सकते, यहां तक कि सूई की नोक भर भी जमीन मैं पांडवों को नहीं दूंगा ।’ तब अपना न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करने के लिए माता कुंती की आज्ञा और भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से पांडवों ने धर्म समझकर युद्ध के लिए निश्चय कर लिया ।
जब दोनों ओर से युद्ध की पूरी तैयारी हो गयी, तब भगवान वेदव्यास जी से धृतराष्ट्र के समीप आकर उनसे कहा – ‘यदि तुम घोर संग्राम देखना चाहो तो मैं तुम्हें दिव्य नेत्र प्रदान कर सकता हूं । ’ इसपर धृतराष्ट्र ने कहा – ‘ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ ! मैं कुल के इस हत्याकांड को अपनी आंखों देखना तो नहीं चाहता, परंतु युद्ध का वृतांत भलीभांति सुनना चाहता हूं ।’ तब महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान करके धृतराष्ट्र से कहा – ‘ये संजय तुम्हें युद्ध का सब वृतांत सुनावेंगे । युद्ध की समस्त घटनावलियों को ये प्रत्यक्ष देख, सुन और जान सकेंगे । सामने या पीछे से , दिन में या रात में, गुप्त या प्रकट, क्रियारूप में परिणत या केवल मन में आयी हुई, ऐसी कोई बात न होगी जो इनसे तनिक भी छिपी रह सकेगी । ये सब बातों को ज्यों – का – त्यों जान लेंगे । इनके शरीर से न तो कोई शस्त्र छू जाएगा और न इन्हें जरा भी थकावट ही होगी ।’ ‘यह ‘होनी’ है, अवश्य होगी, इस सर्वनाश को कोई नहीं रोक सकेगा । अंत में धर्म की जय होगी’ ।

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 सुनील भगत 

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