शनिवार, 12 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 10

हिंदी अनुवाद :-
विज्ञानसहित ज्ञान का जो वर्णन किया गया उसके बहुत गंभीर हो जोने के कारण अब पुन: उसी विषय को दूसरे प्रकार से भली भांति समझाने के लिए दसवें अध्याय का आरंभ किया जाता है । भगवान पूर्वोक्त विषय का ही पुन: वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं । श्रीभगवान बोले - हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य और फ्रभाव युक्त वचन को सुनो, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा कहूंगा । मेरी उत्पत्ति को अर्थात लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षि जन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकरण हूं । जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान् ईश्वर तत्त्वसे जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है । निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख - दुख, उत्पत्ति - प्रलय और भय - अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति - ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं । ये महर्ष पढ़ना - पढ़ाना, यज्ञ करना- कराना, दान देना - लेना - इन छ: कर्मों को सदा करने वाले ब्रह्मचारियों को पढ़ाने के लिए घरों में गुरुकुल रखने वाले तथा प्रजा की उत्पत्ति के लिए ही स्त्री और अग्नि का ग्रहण करने वाले होते हैं । कर्मजन्य अदृष्ट की दृष्टि से जो समान हैं, उन्हीं के साथ ये व्यवहार करते हैं और अपने ही द्वारा रचित अनिन्द्य भोग्य - पदार्थों से निर्वाह करते हैं ।
ये बाल - बच्चेवाले, गो - धन आदि सम्पत्तिवाले तथा लोकों के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले हैं । सत्य आदि सभी युगों के आरंभ में पहले - पहल ये ही सब महर्षिगण बार - बार वर्णश्रमधर्म की व्यवस्था किया करते हैं । जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह निश्चय भक्ति योग से युक्त हो जाता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है । मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूं और मुझसे ही सब जगत चेष्टा करता है - इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं । निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञान रूप योग देता हूं, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंत: करण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूं । अध्याय में अपने समग्ररूप का ज्ञान कराने वाले जिस विषय को सुनने के लिए भगवान ने अर्जुन को आज्ञा दी थी तथा विज्ञान सहित ज्ञान को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी । भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जानना भगवत्प्राप्ति में परम सहायक है । अर्जुन बोले - आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषि - गण सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं । वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं । जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूं । आपके लीलामय स्वरूप को न तो दानव और न देवता ही । इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों के द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं ।
श्रीभगवान बोले - अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियां हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूंगा, क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है । मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि मध्य और अंत भी मैं ही हूं । मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूं तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूं । मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं, इंद्रियों में मन हूं और भूतप्राणियों की चेतना अर्थात जीवनी शक्ति हूं । मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं । मैं आठ वसुओं में अग्नि हूं और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं । मैं अक्षरों में अकार हूं और समासों में द्वंद नामक समास हूं । अक्षय काल अर्थात् काल का भी महा - काल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण - पोषण करने वाला भी मैं ही हूं । मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालों का उत्पत्ति हेतु हूं तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं । तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूं तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूं । मैं छल करने वालों में जुआ और प्रबावशाली पुरुषों का प्रभाव हूं । मैं जीतने वालों को विजय हूं, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं । साथ ही जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूं, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो । मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एकदेश से अर्थात संक्षेप से कहा है ।
जो - जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस - उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जानों । इस प्रकार मुख्य - मुख्य वस्तुओं में अपनी योगशक्तिरूपी तेज के अंश की अभिव्यक्ति का वर्णन करके अब भगवान बतला रहे हैं कि समस्त जगत मेरी योगशक्ति के एक अंश से ही धारण किया हुआ है ।

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सुनील भगत 

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