सोमवार, 21 दिसंबर 2015

गीता सार : (गीता जयंती के उपलक्ष्य पर)

। । आप सभी को गीता जयंती की ढेर सारी बधाईयाँ। । 
भगवान श्री कृष्ण ने आज  के दिन २१ दिसंबर, (एकादशी तिथि ) दिन रविवार को अर्जुन को गीता का उपदेश दिए थे लगभग ७ हजार वर्ष पहले सुनाई थी। और यह लगभग ४५ मिनट में पूरा उपदेश ७०० श्लोक का दिया था।  इसमे पूरा १८ अध्याय है।  भगवन श्रीकष्ण जी ने ५७४ श्लोक कहे, अर्जुन ने ८५ श्लोक, संजय ने ४० श्लोक और धृतराष्ट ने १ श्लोक कहा था।  जो पूरा मिलाकर ७०० श्लोक और १८ अध्याय में कहा गया। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह की आज २१/१२/२०१५ है और हिंदी तिथि एकादशी तिथि  भी आज है। लेकिन आज सोमवार है।  ऐसी पुन्य तिथि हजारो वर्ष में कभी - कभी ही देखने को मिलती है।


गीता सार :
***क्रोध से भ्रम पैदा होता है । भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है ।
जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है । जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है ।

***तुम उसके लिए शोक करते हो जो शोक करने के योग्य नहीं हैं, और फिर भी ज्ञान की बातें करते हो । बुद्धिमान व्यक्ति ना जीवित और ना ही मृत व्यक्ति के लिए शोक करते हैं ।

***जन्म के समय में आप क्या लाए थे जो अब खो दिया है? आप ने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया है? जब आप पैदा हुए थे, तब आप कुछ भी साथ नहीं लाए थे. आपके पास जो कुछ भी है, आप को इस धरती पर भगवान से ही प्राप्त हुआ है. तुम इस धरती पर जो भी दोगे, तुम भगवान को ही दोगे. हर कोई खाली हाथ इस दुनिया में आया था और खाली हाथ ही उसी रास्ते पर चलना होगा. सब कुछ केवल भगवान के अंतर्गत ही आता है.

***आप एक अविनाशी आत्मा हैं और एक मृत्युमय शरीर नहीं है. शरीर पांच तत्वों से बना है - पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। एक दिन शरीर इन तत्वों में लीन हो जाएगा । आत्मा अजन्मा है और कभी नहीं मरता है । आत्मा मरने के बाद भी हमेशा के लिए रहता है । तो क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो ? तुम किस बात से डर रहे हैं ? कौन तुम्हें मार सकता है ?

***जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा हैं अच्छा हो रहा हैं ! 
जो होगा वो भी अच्छा ही होगा । 
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ?
तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया ?
तुमने जो लिया, यहीं से लिया !
जो दिया यहीं पर दिया !
जो आज तुम्हारा हैं, कल किसी और का होगा !
परिवर्तन ही संसार का नियम है ।


***कर्मों का त्याग कर देने मात्र से ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती
एक क्षण के लिए भी मनुष्य कर्म किए बिना नहीं रह सकता
बाहर से कर्मों का त्याग करके मन से विषयों का चिंतन मिथ्या है
मन इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्म करने वाला श्रेष्ठ है, 
दूसरे मनुष्य श्रेष्ठ महापुरुष का अनुकरण करते हैं, 
इसलिए श्रेष्ठ महापुरुष को कर्म करना चाहिए ।


***जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, 
क्योंकि राग - द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ।

***जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं - वे सुख - दुख नामक द्वंद्वों से विमुख ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं ।

***जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयंप्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है ।

***बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है - वह समस्त ‘असत्’ है । वो न तो इस लोक में लाभदायक है और न ही मरने के बाद ।


***विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हल्का , सात्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्विक धारणशक्ति के द्वारा अंत:करण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग - द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भली - भांति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रहण त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला ममतारहित तथा शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानंद ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है ।

***न तो यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम इस शरीर के हो
यह शरीर पांच तत्वों से बना है - अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश ।
एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा ।

***कर्म करना और फल की इच्छा न करना ही ‘निष्काम कर्म - योग यानि भक्ति - योग’ है, बिना भक्ति - योग के भगवान की प्राप्ति असंभव है । कर्म का बीज बो देने पर फल का उत्पन्न होना निश्चित ही होता है, फल जाएगा कहां ? फल तो बीज बोने वाले को ही मिलेगा, कोई दूसरा तो उस फल को खा ही नहीं सकता है तो हमें चिंता करने की क्या आवश्यकता है ?

***जब हम फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब सकाम - फल यानि दुख - सुख रूपी विष के समान विषय - भोगों की प्राप्ति होती है, इस फल को भोगने के लिए हमें बार - बार जन्म लेना पड़ता है । जब हम बिना फल की इच्छा से कर्म करते हैं तब निष्काम - फल यानि अमृत - फल की उत्पत्ति होती है जिसे प्राप्त कर हम परम - आनंद अवस्था में स्थिर होकर जन्म - मृत्यु चक्र से मुक्त हो परम गति को प्राप्त होते हैं ।


***
सुनील भगत 


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