सोमवार, 21 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 18

हिंदी अनुवाद :-
जन्म - मरणरूप संसार के बंधन से सदा के लिए छूटकर परमानंदस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेने का नाम मोक्ष है, इस अध्याय में पूर्वोक्त समस्त अध्यायों का सार संग्रह करके मोक्ष के उपाय भूत सांख्ययोग का संन्यास के नाम से और कर्मयोग का त्याग के नाम से अंग - प्रत्यंगोंसहित वर्णन किया गया है, इसलिए तथा साक्षात् मोक्षरूप परमेश्वर में सर्व कर्मों का संन्यास यानी त्याग करने के लिए कहकर उपदेश का उपसंहार किया गया है ।
प्रस्तुत अध्याय में अर्जुन ने कहा कि मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक् - पृथक् जानना चाहता हूं । इसपर भगवान बोले कि कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं । कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है । संन्यास और त्याग , इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तुम मेरा निश्चय सुनों । क्योंकि त्याग सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकार का कहा गया है । यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप - ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं । इसलिए इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है । जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता - वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है । गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन - तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तुम मुझसे भली भांति सुनो ।
जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक - पृथक सब भूतों में अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तुम सात्त्विक जानो । अन्त:करण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर - भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद - शास्त्रों का अध्ययन - अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभलृव करना ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं । शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव - ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं । खेती, गोपालन और क्रय - विक्रयरूप सत्य व्यवहार - ये वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं । तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है । अपने - अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तुम सुनों ।
जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ।
अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तुम केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जाओ । मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तुम शोक मत करो । तुझे गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए, तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ।
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा - इसमें कोई संदेह नहीं है । उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं हा, तथी पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं । जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा - ऐसा मेरी मत है । जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ।
अंत में श्रीप्रभु ने अर्जुन से प्रश्न किया कि क्या इस (गीताशास्त्र) को तुमने एकाग्रचित्त से श्रवण किया ? और क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो गया ?
अर्जुन बोले - हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूं, अत: आपकी आज्ञा का पालन करूंगा ।

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