शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 16

 हिंदी अनुवाद :-
श्रीप्रभु ने कहा है कि दैवी प्रकृति से युक्त महात्माजन मुझे भूतों का आदि और अविनाशीसमझकर अनन्य प्रेम के साथ सब प्रकार से निरंतर मेरा भजन करते हैं । भगवान ने कहा है कि जो ज्ञानी महात्मा मुझे पुरुषोत्तम जानते हैं, वे सब प्रकार से मेरा भजन करते हैं । इसपर स्वाभाविक ही भगवान को पुरुषोत्तम जानकर सर्वभाव से उनका भजन करने वाले दैवी प्रकृतियुक्त महात्मा पुरुषों के और उनका भजन न करने वाले आसुरी प्रकृति युक्त अज्ञानी मनुष्यों के क्या - क्या लक्षण हैं ? यह जानने की इच्छा होती है । अतएव अब भगवान दोनों के लक्षण और स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिए अध्याय आरंभ करते हैं ।
श्रीभगवान बोले - भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और सात्विक दान, इंद्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद - शास्त्रों का पठन - पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इंद्रियों के सहित अन्त:करण की सरलता ।
मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण , अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण उपरति अर्थात् चिंत की चंचलता का ्बाव, किसी की भी निदांदि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ।
तेज, धैर्य, बाहर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव - ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं । इस प्रकार धारण करने के योग्य दैवीसम्पद् से युक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन करके अब त्याग करने योग्य आसुरी सम्पद् से पुरुष के लक्षम संक्षेप में कहे जाते हैं -
दम्भ, घमंड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी - ये सब आसुरी - सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं । अब भगवान दोनों सम्पदाओं का फल बतलाते हुए अर्जुन को दैवी - सम्पदा से युक्त बतलाकर आश्वासन देते हैं -
दैवी - सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी - सम्पदा बांधने के लिए मानी गयी है । इसलिए तुम शोक मत करों, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ।
इस अध्याय के प्रारंभ में और इसके पूर्व भी दैवी - सम्पदा का विस्तार से वर्णन किया गया, परंतु आसुरी - सम्पदा का वर्णन अब तक बहुत संक्षेप से ही हुआ । अतएव आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के स्वभाव और आचार - व्यवहार का वर्णन भगवान इस प्रकार करते हैं -
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति - इन दोनों को ही नहीं जानते । इसलिए उनमें न तो बाहर - भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ है और न सत्यभाषण ही है । ऐसे नास्तिक सिद्धांत के मानने वालों के स्वभाव औरआचरण कैसे होते हैं ? इस जिज्ञासा पर अब भगवान उनके लक्षणों का वर्णन करते हैं -
इस मिथ्या ज्ञान को अबलंबन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्दि मंद है, वे सबका अपकार करने वाले क्रूर कर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं । तथा वे मृत्यु पर्यत रहने वाली असंख्य चिंताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने में तत्पर रहनेवाला और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं । वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा । मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा । वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रउओं को भी मैं मार डालूंगा । मैं ईश्वर हूं, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं । मैं सब सिद्धियों से युक्त हूं और बलवान तथा सुखी हूं । वे अपने - आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाशंड से शास्त्रविधि रहित यजन करते हैं । ये अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं । उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार - बार आसुरी योनियों में ही डालता हूं ।
आसुर - स्वभाव वाले मनुष्यों को लगातार आसुरी योनियों के और घोर नरकों के प्राप्त होने की बात सुनकर यह जिज्ञासा हो सकती है कि उनके लिए इस दुर्गति से बचकर परमगति को प्राप्त करने का उपाय है ? इस पर समस्त दुर्गतियों के प्रधान कारणरूप आसुरी सम्पत्ति के त्रिविध दोषों के त्याग करने की बात कहते हुए भगवान परमगति प्राप्ति की उपाय बतलाते हैं -
काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं । अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए । इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ।
जो उपर्युक्त दैवी सम्पदा का आचरण करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है या नहीं ? इस पर कहते हैं - जो पुरुष शास्त्रविधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही । शास्त्रविधि को त्यागकर किए जाने वाले मनमाने कर्म निष्फल होते हैं, यह बात सुनकर यह जिज्ञासा हो सकती है कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ? इस पर प्रभु कहते है कि इससे तुम्हारे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तुम शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ।

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