हिंदी अनुवाद :-
चौदहवें अध्याय में तीनों गुणों के स्वरूप, उनके कार्य एवं उनकी बंधनकारिता का और बंधे हुए मनुष्यों की उत्तम, मध्यम और अधम गति आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उन गुणों से अतीत होने का उपाय और फल बतलाया गया । उसके बाद अर्जुन के पूछने पर गुणातीत पुरुष के लक्षणों और आचरणों का वर्णन करके सगुण परमेक्षवर के अव्यभिचारी भक्तियोग को गुणों से अतीत होकर ब्रह्मप्राप्ति के लिए योग्य बनने का सरल उपाय बतलाया गया, अतएव भगवान में अव्यभिचारी भक्तियोगरूप अनन्यप्रेम उत्पन्न कराने के उद्देश्य से अब उस सगुण परमेश्वर पुरुषोत्तम भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का एवं गुणों से अतीतहोने में प्रधान साधन वैराग्य और भगवत् - शरणागति का वर्णन करने के लिए अध्याय का आरंभ किया जाता है । यहां पहले संसार में वैराग्य उत्पन्न कराने के उद्देश्य से संसार का वर्णन वृक्ष के रूप में करते हुए वैराग्य रूप शस्त्रद्वारा उसका छेदन करने के लिए कहते हैं -
श्रीभगवान बोले - आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले जिस संस्काररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते कहे गए हैं - उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाले है । उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जलके द्वारा बढ़ी हुई एवं विषयभोगरूप कोपलोंवाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं । इस संसारवृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहां विचार - काल में नहीं पाया जाता । क्योंकि न तो इसका आदि है, न अंत है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है । इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर ।
उसके पश्चात् उस परमपदरूप परमेश्वर के भली - भांति खोजना चाहिए, जिसमें गए हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूं - इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए । जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोष को जीत लिया है, जिनका परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं - वे सुख - दुख नामक द्वंद्वों से विमुख ज्ञानी जन इस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं । जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते , उस स्वयंप्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही, वहीं मेरा परमधाम है ।
संसारवृक्ष के नाम से क्षर पुरुष का वर्णन किया, उसमें जीवारूप अक्षर पुरुष के छूटने का उपाय सृष्टिकर्ता आदि पुरुष की शरण ग्रहण करना बताया । इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उपर्युक्त प्रकार से बंधे हुए जीव का क्या स्वरूप है ? और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है ? उसे कौन कैसे जानता है ? अत: इन सब बातों का स्पष्टीकरण करने के लिए पहले जीव का स्वरूप बतलाते हैं -
इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वहीं इन प्रकृति में स्थित मन और पांचो इंद्रियों को आकर्षण करता है । यह जीवात्मा मनसहित छ: इंद्रियों को किस समय, किस प्रकार और किसलिए आकर्षित करता है तथा वे मनसहित छ: इंद्रियां कौन - कौन हैं - ऐसी जिज्ञासा होने पर इसका उत्तर दिया जाता है - वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मनसहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है । यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे ही विषयों का सेवन करता है । अतएव यह जिज्ञासा होती है कि ऐसे आत्मा को कौन कैसे जानता है और कौन नहीं जानता ? इस पर भगवान कहते हैं - शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को बोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं । यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किंतु जिन्होंने अपने अंत:करण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते ।
सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में है और जो अग्नि में है - उसको तुम मेरी ही तेज जानों । और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चंद्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं । मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूं तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं । इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है । क्योंकि मैं नाशवान जडवर्ग - क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं ।
जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है । इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें