हिंदी अनुवाद :-
सोलहवें अध्याय के आरंभ में श्री भगवान ने निष्काम भाव से सेवन किए जाने वाले शस्त्रविहित गुण और आचरणों का दैवी - सम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्रविपरीत आसुरी सम्पत्ति का कथन किया । साथ ही आसुर - स्वभाव वाले पुरुषों को नरकों के द्वार हैं, इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिए साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । इसके अनंतर यह कहा कि जो शास्त्रविधिका त्याग करके, मनमाने ढंग से अपनी समझसे जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता, सिद्धि के लिए गए कर्म से सिद्धि नहीं मिलती, सुख के लिए किए गए कर्म से सुख नहीं मिलता और परम गति तो मिलती ही नहीं । अतएव करने और न करने योग्य कर्मों की व्यवस्था देने वाले शास्त्रों के विधान के अनुसार ही तुम्हें निष्काम भाव से कर्म करने चाहिए । इससे अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि जो लोग शास्त्रविधि के छोड़कर मनमाने कर्म करते हैं, उनके कर्म व्यर्थ होते हैं - यह तो ठीक ही है । परंतु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं जो शास्त्रविधि का तो न जानने के कारण अधवा अन्य किसी कारण से त्याग कर बैठते हैं, परंतु यज्ञ - पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी क्या स्थिति होती है ? यह जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन -सी है ? सात्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी ? यह सुनकर श्रीप्रभु बोले कि मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी - ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तुम मुझसे सुनो । श्रद्धा के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा का स्वरूप बतलाया गया, इससे यह जाने की इच्छा हो सकती है कि ऐसे मनुष्यों की पहचान कैसे हो की कौन किस निष्ठावाला है । इसपर भगवान कहते हैं -
सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं । न जानने के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके त्रिविध स्वाभाविक श्रद्धा के साथ यजन करने वालों का वर्णन किया गया, परंतु शास्त्रविधिका त्याग करने वाले अश्रद्धालु मनुष्यों के विषय में कुछ नहीं कहा गया, अत: यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि जिनमें श्रद्धा भी नहीं है और जो शास्त्रविधि को भी नहीं मानते और घोर तप आदि कर्म करते हैं, वे किस श्रेणी में है ? इसपर भगवान कहते हैं - जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं । त्रिविध स्वाभाविक श्रद्धा वालों के तथा घोर तप करने वाले लोगों के लक्षण बतलाकर अब भगवान सात्त्विक का ग्रहण और राजस - तामस का त्याग कराने के उद्देश्य से सात्त्विक - राजस - तामस आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिए अर्जुन को आज्ञा देते हैं -
भोजन भी सबको अपनी - अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है । और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन - तीन प्रकार के होते हैं । उनके इस पृथक - पृथक भेद को तुम मुझसे सुनो ।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थित रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय - ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं । कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दु:ख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं । जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है । जो शास्त्रविधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है - इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है । परंतु दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस जानो । शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जानेवाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।
दान देना ही कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है । किंतु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है । जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश - काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है । इस प्रकार सात्त्विक यज्ञ, तप और दान आदि को सम्पादन करने योग्य बतलाने के उद्देश्य से और राजस - तामस को त्याज्य बतलाने के उद्देश्य से उन सबके तीन - तीन भेद किए गए । अब वे सात्त्व्क यज्ञ, दान और तप उपादेय क्यों हैं, भगवान से उनका क्या संबंध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ, तप और दानों में जो अंग - वैगुण्य हो जाए, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है - यह सब बतलाने के लिए अगला प्रकरण आरंभ किया जाता है -
दान देना ही कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है । किंतु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है । जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश - काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है । इस प्रकार सात्त्विक यज्ञ, तप और दान आदि को सम्पादन करने योग्य बतलाने के उद्देश्य से और राजस - तामस को त्याज्य बतलाने के उद्देश्य से उन सबके तीन - तीन भेद किए गए । अब वे सात्त्व्क यज्ञ, दान और तप उपादेय क्यों हैं, भगवान से उनका क्या संबंध है तथा उन सात्त्विक यज्ञ, तप और दानों में जो अंग - वैगुण्य हो जाए, उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है - यह सब बतलाने के लिए अगला प्रकरण आरंभ किया जाता है -
ओम्, तत्, सत, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंद ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए । इसलिए वेदमंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएं सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं । तत् अर्थात् ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है - इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएं तथा दानरूप क्रियाएं कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ।
सत् - इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तम कर्म में भी सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है । तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् - ऐसे कहा जाता है । बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है - वह समस्त ‘असत्’ - इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक लाभदायक है और न मरने के बाद ही ।
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