सोमवार, 7 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 03

हिंदी अनुवाद :-
तृतीय अध्याय में अर्जुन बोले – हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाया है ? इस प्रश्न पर श्री भगवान उन्हें समझाते हुए कहते है कि इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है । उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है । मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा ही प्राप्त होता है । कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है । जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है । जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मयोग आचरण करता है, वहीं श्रेष्ठ है । इसलिए तुम निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भांति करते रहो । क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । श्रेष्ठ पुरुष जो – जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा – वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है । मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूं । यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं । इंद्रिय – इंद्रिय के अर्थ में प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं । मनुष्य का स्वधर्म पालन करने में ही कल्याण है, परधर्म का सेवन और निषिद्ध कर्मों का आचरण करने में सब प्रकार से हानि है ।
तुम आत्मा को रथी और शरीर को रथ मानों और बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो । विवेक पुरुष इंद्रियों को घोड़े बतलाते हैं और विषयों को उनके मार्ग कहते हैं तथा शरीर, इंद्रिय एवं मन से युक्त आत्मा को ‘भोक्ता’ कहते हैं ।
किंतु जो बुद्धिरूपी सारथी सर्वदा अविवेकी और असंयत चित्त से युक्त होता है, उसके अधीन इंद्रियों वैसे ही नहीं रहतीं, जैसे सारथी के अधीन दुष्ट घोड़े और जो (बुद्धिरूप सारथी) विज्ञानवान नहीं है, जिसका मन निगृहीत नहीं है और जो सदा अपवित्र है, वह उस पद को प्राप्त नहीं कर सकता वरं वह संसार को ही प्राप्त होता है ।
परंतु जो बुद्धिरूपी सारथी विवेकखील तथा समाहितचित्त है, उसके अधीन इंद्रियां वैसे ही रहती हैं, जैसे सारथी के अधीन उत्तम शिक्षित घोड़े ।
तथा जो विज्ञानवान है, निगृहीत मनवाला है और सदा पवित्र रहता है, वह उस पद को प्राप्त कर लेता है, जहां से फिर वह उत्पन्न नहीं होता यानी पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता । इंद्रियों की अपेक्षा उनके अर्थ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधरूप तन्मात्राएं) पर (श्रेष्ठ, सूक्ष्म और बलवान) हैं, अर्थों से मन पर है, मन से बुद्धि से भी महान आत्मा (महत्तव समष्टि - बुद्धि) पर है । महत्तव से अव्यक्त (मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्त से पुरुष पर है । पुरुष से पर और कुछ नहीं है, वहीं पराकाष्ठा (अंतिम अवधि) है और वहीं परम गति है ।

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सुनील भगत 

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