बुधवार, 9 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 08

हिंदी अनुवाद:-
आठवें अध्याय में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है ? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं । यहां अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे है ? तथा युक्ति चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं । इन प्रश्नों के उत्तर में श्रीप्रभु कहते है कि परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म’ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है ।
उत्पत्ति - विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष अधिदैव है और इस शरीर में वासुदेव ही अंतर्यामी रूप से अधियज्ञ हूं । जो पुरुष अन्त काल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें कुछ संशय नहीं है । परंतु यह जिज्ञासा होती है कि केवल भगवान के स्मरण के संबंध में ही यह विशेष नियम है या सभी के संबंध में है ? यह मनुष्य अंतकाल में जिस – जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस – उसको ही प्राप्त होता है, क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है । अंतकाल में भगवान का स्मरण रखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है और अंतकाल अचानक ही कब आ जाए इसका कुछ पता नहीं है, अतएव अब भगवान निरंतर भजन करते हुए ही युद्ध करने के लिए अर्जुन को आदेश करते हैं तुम सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी करो ।
इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन – बुद्धि से युक्त होकर तुम नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा । यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त , दूसरी ओर न जानेवाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशस्वरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है । जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण – पोषण करने वाले अचिंत्यस्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्या से परे, शुद्ध सच्चिदानंदघन परमेक्ष्वर का स्मरण करता है ।
वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योग बल से भृकुटी के मध्यम में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है । वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानंदघनस्वरूप परम पद को अविनाशी कहते हैं, आसक्तिरहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षेप से कहूंगा । सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदेश में स्थिर करके फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्मसंबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष ‘ओम्’ इस एक अक्षररूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुछ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हृउ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है । भगवान के नित्य – निरंतर चिंतन से भगवत्प्राप्ति की सुलभता का प्रतिपादन किया, अब उनके पुनर्जन्म न होने की बात कहकर यह दिखलाते हैं कि भगवत्प्राप्त महापुरुषों का भगवान से फिर कभी वियोग नहीं होता । इस कथन से यह प्रकट होता है कि दूसरे जीवों का पुनर्जन्म होता है । अत: यह जानने की इच्छा होती है कि किस लोक तक पहुंचे हुए जीवों को वापस लौटना पड़ता है ।
इस पर भगवान कहते हैं कि ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोकों का पुनरावर्ती बतलाया, परंतु वे पुनरावर्ती कैसे हैं – इस जिज्ञासापर अब भगवान ब्रह्मा के दिन – रात की अवधि का वर्णन करके सब लोकों की अनित्यता सिद्ध करते हैं – ब्रह्मा का जो एक दिन है , उसको एक हजार चतुर्युगीतक की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युगीतक की अवधि वाली जो पुरुष तत्त्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्त्व को जानने वाले हैं । ब्रह्मा के दिन – रात्रि का परिमाण बतलाकर अब उस दिन और रात के आरंभ में बार – बार होने वाली समस्त भूतों की उत्पत्ति और प्रलय का वर्णन करते हुए उन सबकी अनित्यताका कथन करते हैं – यद्यपि ब्रह्मा की रात्रि के आरंभ में समस्त भूत अव्यक्त में लीन हो जाते हैं, तथापि जबतक वे परम पुरुष परमेश्वर को प्राप्त नहीं होते, तबतक नका पुनर्जन्म से पिंड नहीं छूटता, वे आवागमन के चक्कर में घूमते ही रहते हैं । इसी भाव को दिखलाने के लिए भगवान कहते हैं कि वहीं यह भूत समुदाय उत्पन्न हो – होकर प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है ।
ब्रह्मा की रात्रि के आरंभ में जिस अव्यक्त में समस्त भूत लीन होते हैं और दिन का आरंभ होते ही जिससे उत्पन्न होते हैं, वहीं अव्यक्त सर्वश्रेष्ठ है ? या उससे बढ़कर कोई दूसरा और है ? इस जिज्ञासापर कहते हैं – जो अव्यक्त ‘अक्षर’ इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नाम तक अव्यक्तभाव को परम गति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है । योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्य फल कहा है, उस सबको नि:संदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है ।

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सुनील भगत 

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