बुधवार, 9 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 06

हिंदी अनुवाद :-
इस अध्याय में कर्म योगी की प्रशंसा की गई है । योगारुढ पुरुष के लक्षण बतलाकर पूर्वोक्त मनुष्य को योगारुढावस्था प्राप्त करने के लिए उत्साहित करके उसके कर्तव्य का निरूपण किया गया है । ‘आप ही अपने मित्र है और आप ही अपने शत्रु है’ इस बात का रहस्य खोलकर शरीर, मन, इंद्रियादि के जीतने का फल बतलाया गया है । अर्जुन ने ‘कर्मसंन्यास’ (सांख्ययोग) और ‘कर्मयोग’ इन दोनों में से कौन सा एक साधन मेरे लिए सुनिश्चित कल्याणप्रद हैं ? यह बतलाने के लिए भगवान से प्रार्थना की थी । इसपर भगवान ने दोनों साधनों को कल्याणप्रद बतलाया और फल में दोनों की समानता होने पर भी सुगमता होने के कारण ‘कर्मसंन्यास’ की अपेक्षा ‘कर्मयोग’ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया । तदंतर दोनों साधनों के स्वरूप, उनकी विधि और उनके फल का भलीभांति निरूपण करके दोनों के लिए ही अत्यंत उपयोगी एवं परमात्मा की प्राप्ति प्रधान उपाय समझकर संक्षेप में ध्यान योग का भी वर्णन किया । परंतु दोनों में से कौन – सा साधन करना चाहिए, इस बात को न तो अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में आज्ञा ही की गयी और न ध्यान योग का ही अंग - प्रत्यंगों सहित विस्तार से वर्णन हुआ ।
योग में आरूढ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगरूढ हो जाने पर उस योगरूढ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है वहीं कल्याण में हेतु कहा जाता है । जिस काल में न तो इंद्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारुढ कहा जाता है । अपने द्वारा अपना संसार - समुद्र से उद्धार करें और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपने शत्रु है । जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है ।
सर्दी – गर्मी और सुख – दुखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अंत:करण की वृत्तियां भली भांति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित हैं अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं । जिसने शरीर, इंद्रिय और मनरूप आत्मा को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र है । उस जितात्मा पुरुष के लिए परमात्मा को प्राप्त होना तथा परमात्मा को प्राप्त पुरुष के लक्षण बतलाकर उसकी प्रशंसा की गई । इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जितात्मा पुरुष को परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए, वह किस साधन से परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकता है ? जितात्मा पुरुष को ध्यान योग का साधन करने के लिए कहा गया । आसन पर बैठकर ध्यान योग से साधन करने के लिए कहा गया । अब उसी का स्पष्टीकरण करने के लिए आसन पर कैसे बैठना चाहिए, साधक का भाव कैसा होना चाहिए, उसे किन - किन नियमों का पालन करना चाहिए और किस प्रकार किसका ध्यान करना चाहिए । ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भली भांति शांत अंत:करण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित हो ।
वस्तुत: भगवान के गुण, प्रभाव, तत्व और रहस्य के लिए यह कहना तो बन ही नहीं सकता कि वे यही और इतने ही हैं । इस संबंध में जो कुछ भी कहा जाता है, सब सूर्य को दीपक दिखलाने के समान ही है । तथापि उनके गुणादि का किश्चित सा स्मरण, श्रवण और कीर्तन मनुष्य को पवित्रतम बनानेवाला है, इसी से उनके गुणादिका शास्त्रकारगण वर्णन करते हैं । उन्हीं शास्त्रों के आधार पर उनके गुणादि को इस प्रकार समझना चाहिए –
अनंत और असीम तथा अत्यंत ही विलक्षण समता, शांति, दया, प्रेम, क्षमा, माधुर्य, वात्सल्य, गंभीरता, उदारता, सुहृदतादि भगवान के ‘गुण’ हैं । सम्पूर्ण बल, ऐश्वर्य, तेज, शक्ति, सामर्थ्य और असंभव को भी संभव कर देना आदि भगवान के ‘प्रभाव’ हैं । जैसे परमाणु, भाप, बादल, बूंदें और ओले आदि सब जल ही हैं, वैसे ही सगुण – निर्गुण, साकार - निराकार, व्यक्त – अव्यक्त, जड – चेतन, स्थावर – जंगम, सत्त – असत्त आदि जो कुछ भी है तथा जो इससे भी परे है, वह सब भगवान ही है । यह तत्व है । भगवान के दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिंतन, कीर्तन, अर्चन, वंदन और स्तवन आदि से पापी भी परम पवित्र हो जाते हैं । अज, अविनाशी, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वत्र समभाव से स्थित भगवान ही दिव्य अवतार धारण करके प्रकट होते हैं और उनके दिव्य गुण, प्रभाव, तत्व आदि वस्तुत: इतने अचिंत्य, असीम और दिव्य हैं कि उनके अपने सिवा उन्हें अन्य कोई जान ही नहीं सकता । यह उनका ‘रहस्य’ है । श्रीप्रभु कहते है कि हे अर्जुन ! यह योगी न तो बहुत खानेवाले का, न बिलकुल खानेवाले का , न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है । दुखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार – विहार करने वाले का, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करनेवाले का और यथा योग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है । अत्यंत वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली भांति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है ।
जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है । जो योगी अपनी भांति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सब में सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है । यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि जो यह योग अपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूं । यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है । इसलिए उसका वश में करना मैं वायु के रोकने की भांति अत्यंत दुष्कर मानता हूं ।
श्रीभगवान ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि नि:संदेह मन चंचल और कठिनता से वश होने वाला है, परंतु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है । जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है - यह मेरा मत है । जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किंतु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अंत काल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है । मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य है क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है ।
श्रीभगवान बोले की उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही । आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता । परंतु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिधले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है । योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन ! तू योगी हो । सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है ।

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सुनील भगत 

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