बुधवार, 9 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 07

हिंदी अनुवाद:-
सातवें अध्याय में श्रीभगवान अर्जुन से बोलते है कि अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा,उसको सुनो ।
मैं तुम्हारे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्वरज्ञान को सम्पूर्णतया कहूंगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जाननेयोग्य शेष नहीं रह जाता है । हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थरूप से जानता है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी – इस प्रकार आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है । यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और इससे दूसरी को जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जानों । तुम ऐसा समझों कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूं अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूलकारण हूं । मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है ।
यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश मुझमें गुंथा हुआ है । इस प्रकार प्रधान – प्रधान वस्तुओं में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान ने प्रकारांतरसे समस्त जगत में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी अब अपने को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपसंहार करते हैं । भगवान ने यह दिखलाया कि समस्त जगत मेरा ही स्वरूप है और मुझसे ही व्याप्त है । यहां यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यंत समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नहीं पहचानते ?
इस पर भगवान कहते हैं कि गुणों के कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस - इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार – प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझे अविनाशी को नहीं जानता । भगवान ने सारे जगत को त्रिगुणमय भावों से मोहित बतलाया । इस बात को सुनकर अर्जुन को यह जानने की इच्छा हुई कि फिर इससे छूटने का कोई उपाय है या नहीं ? अंतर्यामी दयामय भगवान इस बात को समझकर अब अपनी माया को दुस्तर बतलाते हुए उससे तरने का उपाय सूचित कर रहें है क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं । इस पर यह प्रश्न उठता है कि जब ऐसी बात है तब सब लोग निरंतर आपका भजन क्यों नहीं करते ? इस पर भगवान कहते है कि माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे असुर स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढलोग मुझको नहीं भजते । पापात्मा आसुरी प्रकृति वाले मूढलोग मेरा भजन नहीं करते ।
इससे यह जिज्ञासा होती है कि फिर कैसे मनुष्य आपका भजन करते हैं, इसपर भगवान कहते हैं उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार प्रकार के भक्त जन मुझको भजते हैं । उनमें नित्य मुझमें एकी भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्त उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह ज्ञानी मुझे अत्यंत प्रिय है । इसपर शंका हो सकती है कि क्या दूसरे भक्त श्रेष्ठ और प्रिय नहीं हैं ?
इस पर भगवान कहते हैं – ये सभी उदार हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह मद्नत मन - बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है । बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्त्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार मुझको भजता है, यह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है । जो - जो सकाम भक्त जिस – जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस – उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूं ।
भगवान ने अपने को योगमाया से आवृत बतलाया । इससे कोई यह न समझ ले कि जैसे मोटे परदे के अंदर रहने वाले बाहर वाले नहीं देख सकते और वह बाहर वालों को नहीं देख सकता, इसी प्रकार यदि लोग भगवान को नहीं जानते तो भगवान भी लोगों को नहीं जानते होंगे – इसलिए और साथ ही यह दिखलाने के लिए कि योग माया मेरे अधीन और मेरी ही शक्ति विशेष है, वह मेरे दिव्य ज्ञान को आवृत नहीं कर सकती, भगवान कहते हैं - पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूं, परंतु मुझको कोई भी श्रद्धा - भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता ।
परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग – द्वेषजनित द्वंद्वरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं । जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं । जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित मुझे अंत काल में भी जानते हैं वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं ।

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सुनील भगत 

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