हिंदी अनुवाद :-
तेरहवें अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के लक्षणों का निर्देश करके उन दोनों के ज्ञान को ही ज्ञान बतलाया और उसके अनुसार क्षेत्र के स्वरूप, स्वभाव, विकार और उसके तत्त्वों की उत्पत्ति के क्रम आदि तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप और उसके प्रभाव का वर्णन किया । वहां प्रकृति पुरुष के नाम से प्रकरण आरंभ करके गुणों को प्रकृति जन्य बतलाया और यह बात भी कही कि पुरुष के बार - बार अच्छी - बुरी योनियों में जन्म होने में गुणों का संग से किस योनि में जन्म होता है,गुणों से छूटने के उपाय क्या है,गुणों से छूटे हुए पुरुषों के लक्षण तथा आचरण कैसे होता है - ये सब बातें जानने की स्वाभाविक ही इच्छा होती है, अतएव इसी विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए चौदहवें अध्याय का आरंभ किया गया है । इस अध्याय में विस्तारपूर्वक समझाना है, इसलिए पहले भगवान उस ज्ञान का महत्त्व बतलाकर उसके पुन: वर्णन की प्रतिज्ञा करते हैं -
श्रीभगवान बोले कि ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूंगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं । इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलय काल में भी व्याकुल नहीं होते । मेरी महत् - ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन - समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूं । उस जड - चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है । नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात् शरीर धारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं ।
श्रीभगवान बोले कि ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूंगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं । इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलय काल में भी व्याकुल नहीं होते । मेरी महत् - ब्रह्मरूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन - समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूं । उस जड - चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है । नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात् शरीर धारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं ।
उन्होंने अर्जुन से पुन: कहा कि सत्वगुम, रजोगुण और तमोगुण - ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं । उन तीनों गुणों में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है, वह सुख के संबंध से और ज्ञान के संबंध से अर्थात् उसके अभिमान से बांधता है ।
रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जानों । वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के संबंध से बांधता है ।
रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जानों । वह इस जीवात्मा को कर्मों के और उनके फल के संबंध से बांधता है ।
सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जानों । वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है । सत्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है । इस प्रकार अन्य दो गुणों को दबाकर प्रत्येक गुण के बढ़ने की बात कही गयी । अब प्रत्येक गुण की वृद्धि के लक्षण जानने की इच्छा होने पर सत्त्वगुण की वृद्धि के लक्षण पहले बतलाये जाते हैं कि जिस समय इस देह में तथा अन्त:करण और इंद्रियों में चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ।
रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकाम बाव से आरंभ, अशांति और विषय भोगों की लालसा - ये सब उत्पन्न होते हैं । तमोगुण के बढ़ने पर अन्त:करण और इंद्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य - कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्त:करण की मोहिनी वृत्तियां - ये सब ही उत्पन्न होते हैं । जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करनेवालों निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है । सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों की वृद्धि में मरने के भिन्न - भिन्न फल बतलाए गए ; इससे यह जानने की इच्छा होती है कि इस प्रकार कभी किसी गुण की और कभी किसी गुणों की वृद्धि क्यों होती है ? इस पर कहते हैं - श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दु:ख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है ।सत्त्वगुम से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुम से निस्संदेह लोभ; तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है ।
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यंत परे सच्चिदानंदघन स्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है । इस प्रकार जीवन - अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है - इस रहस्ययुक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन पूछते हैं कि इन तीनों गुमों से अतीत पुरुष किन - किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है ; तथा हे प्रभु ! मनुष्य किस उपाय से उन तीनों गुणों से अतीत होता है ।
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यंत परे सच्चिदानंदघन स्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है । इस प्रकार जीवन - अवस्था में ही तीनों गुणों से अतीत होकर मनुष्य अमृत को प्राप्त हो जाता है - इस रहस्ययुक्त बात को सुनकर गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत बनने के उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन पूछते हैं कि इन तीनों गुमों से अतीत पुरुष किन - किन लक्षणों से युक्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है ; तथा हे प्रभु ! मनुष्य किस उपाय से उन तीनों गुणों से अतीत होता है ।
इस पर श्रीभगवान अर्जुन से बोलते है कि जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है । जो अपमान और मान में सम हा, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है । जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली भांति लांघकर सच्चिदानंदघन ब्रह्मको प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है । क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का अमृत का तथा नित्यधर्म का और अखंड एकरस आनंद का आश्रय मैं हूं ।
--
सुनील भगत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें