गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

गुरु किसे कहते हैं ?

विषय सूची

सारांश

किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु शिक्षक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं । इस लेख में उनकी गुण विशेषताएं और प्रमुख लक्षणों का विस्तृत विवेचन किया है ।

१. प्रस्तावना

यदि बच्चों से कहा जाए कि वे आधुनिक विज्ञान की शिक्षा किसी शिक्षक के बिना अथवा पिछले कई दशकों में प्राप्त ज्ञान के बिना ही ग्रहण करें तो क्या होगा ? यदि हमें जीवन में बार-बार पहिए का शोध करना पडे, तो क्या होगा ? हमें संपूर्ण जीवन स्वयं को शिक्षित करने में बिताना पडेगा । हम जीवन में आगे नहीं बढ पाएंगे और हो सकता है कि किसी अनुचित मार्ग पर चल पडें ।
विश्‍वमन और विश्‍वबुद्धि : जिस प्रकार ईश्‍वरद्वारा निर्मित मनुष्य, प्राणी आदिको मन एवं बुद्धि होती है, उसी प्रकार ईश्‍वरद्वारा निर्मित संपूर्ण विश्‍वके विश्‍वमन और विश्‍वबुद्धि होते हैं, जिनमें विश्‍वके सम्बंधमें पूर्णतः विशुद्ध (सत्य) जानकारी संग्रहित होती है । इसे ईश्‍वरीय मन तथा बुद्धि भी कहा जा सकता है । जैसे ही किसीका आध्यात्मिक विकास आरंभ होने लगता है, उसके सूक्ष्म मन एवं बुद्धि विश्‍वमन एवं विश्‍वबुद्धिमें विलीन होने लगते हैं । इसी माध्यमसे व्यक्तिको ईश्‍वरकी निर्मितीका ज्ञान पता चलने लगता है ।
हमारी आध्यात्मिक यात्रा में भी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है । किसी भी क्षेत्र के मार्गदर्शक को उस क्षेत्र का प्रभुत्व होना आवश्यक है । अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का अध्यात्म शास्त्र में अधिकार (प्रभुत्व) होता है, उसे गुरु कहते हैं ।
एक उक्ति है कि अंधों के राज्य में देख पाने वाले को राजा माना जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से दृष्टिहीन और अज्ञानी समाज में, प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय से संपन्न गुरु ही वास्तविक अर्थों से दृष्टि युक्त हैं । गुरु वे हैं, जो अपने मार्गदर्शक की शिक्षा के अनुसार आध्यात्मिक पथ पर चलकर विश्व मन और विश्व बुद्धि से ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं । आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु किसे कह सकते हैं और उनके लक्षण कौन से हैं, यह इस लेखमें हम स्पष्ट करेंगे ।

२. उन्नत आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरुकी व्याख्या
जिस प्रकार किसी देश की सरकार के अंर्तगत संपूर्ण देश का प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से चलने हेतु विविध विभाग होते हैं, ठीक उसी प्रकार सर्वोच्च ईश्‍वरीय तत्त्व के विविध अंग होते हैं । ईश्‍वर के ये विविध अंग ब्रह्मांड में विशिष्ट कार्य करते हैं ।
जिस प्रकार किसी सरकार के अंर्तगत शिक्षा विभाग होता है, जो पूरे देश में आधुनिक विज्ञान सिखाने में सहायता करता है, उसी प्रकार ईश्‍वर का वह अंग जो विश्‍व को आध्यात्मिक विकास तथा आध्यात्मिक शिक्षा की ओर ले जाता है, उसे गुरु कहते हैं । इसे अदृश्य अथवा अप्रकट (निर्गुण) गुरु (तत्त्व) अथवा ईश्‍वर का शिक्षा प्रदान करने वाला तत्त्व कहते हैं । यह अप्रकट गुरु तत्त्व पूरे विश्‍व में विद्यमान है तथा जीवन में और मृत्यु के पश्‍चात भी हमारे साथ होता है । इस अप्रकट गुरु की विशेषता यह है कि वह संपूर्ण जीवन हमारे साथ रहकर धीरे-धीरे हमें सांसारिक जीवन से साधना पथ की ओर मोडता है । गुरु हमें अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार अर्थात ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार (चाहे वह हमें ज्ञात हो या ना हो) मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा (दया) जैसे गुण (कौशल) विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं । ये सभी गुण विशेष (कौशल) अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी आध्यात्मिक यात्रा में टिके रहनेकी दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं । जिनमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन है, उनके लिए गुरुतत्त्व अधिक कार्यरत होता है और उन्हें अप्रकट रूप में उनकी आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन करता है ।
विश्‍व में बहुत ही कम लोग सार्वभौमिक (आध्यात्मिक) साधना करते हैं जो औपचारिक और नियमबद्ध धर्म / पंथ के परे है । इनमें भी बहुत कम लोग साधना कर (जन्मानुसार प्राप्त धर्म के परे जाकर) ७०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करते हैं । अप्रकट गुरुतत्त्व, उन्नत जीवों के माध्यम से कार्य करता है, जिन्हें प्रकट (सगुण) गुरु अथवा देहधारी गुरु कहा जाता है । अन्य शब्दों में कहा जाए, तो आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु बननेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ७०% होना आवश्यक है । देहधारी गुरु मनुष्य जाति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के दीप स्तंभ की भांति कार्य करते हैं और वे ईश्‍वर के विश्‍व मन और विश्‍व बुद्धि से पूर्णतः एकरूप होते हैं ।

२.१ गुरु शब्द का शब्दशः अर्थ (व्युत्पत्ति)

गुरु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है । इसके दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार से हैं :
गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है ।
रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता (मिटाता) है ।
संक्षेप में, गुरु वे हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।

३. अध्यापक (शिक्षक) / प्राध्यापक और गुरु में अंतर

निम्नांकित सारणी शिक्षक और देहधारी गुरु में अंतर प्रस्तुत करती है ।
शिक्षकगुरु
teacherguru
एक निश्चित समय-सीमा के लिए पढाते हैंदिन भर २४ घण्टे ज्ञान देते हैं
शब्दों के माध्यमसे पढाते हैंशब्दों से तथा शब्दों के परे(शब्दातीत) ज्ञान देते हैं
विद्यार्थी के व्यक्तिगत जीवन से कोई लेना-देना नहींशिष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण का ध्यान रखते हैं
कुछ ही विषय पढाते हैंअध्यात्म शास्त्र का ज्ञान देते हैं जिसमें सभी विषय समाहित हैं

४. प्रवचनकार और गुरु में अंतर

अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है । लोगों को मार्गदर्शन करने की उनकी पद्धतियों में विद्यमान अंतर संबंधी विस्तृत विवेचन निम्नांकित सारणी में है ।
प्रवचनकारगुरु
preacherguru
नियोजित  सहज
बनावटी प्राकृतिक
बुद्धि द्वारा उत्पन्न होनाआत्मा से उदय होना (अर्थात स्वयं में स्थित ईश्‍वर से उदित होना)
प्रसिद्ध संतों के संदेश तथा धार्मिक पोथियों पर निर्भर रहते हैंईश्वर के अप्रकट गुरु तत्त्व से प्राप्त ज्ञान के आधार पर, सभी पवित्र ग्रंथों का संदर्
ऊपरी स्तर पर ही प्रभाव होता है, इस कारण श्रोता शीघ्र ऊब जाते हैंईश्वर के चैतन्य से भरी हुई वाणी, श्रोता की इच्छा होती है कि वह घंटों तक यह वाणी सुनता रहे
अन्यों के मन में आई शंकाओं का समाधान नहीं मिलता प्रश्न पूछे बिना ही शंकाओं का समाधान उत्तर द्वारा करना
अधिकतर अहं होता हैअहं नहीं रहता
वर्तमान युग के अधिकांश प्रवचनकारों का आध्यात्मिक स्तर ३०% होने के कारण वे जिन धर्म ग्रंथों का संदर्भ देते हैं, वे न तो उनका भावार्थ समझ पाते हैं और न ही उसमें जो लिखा होता है उसकी उन्हें अनुभूति होती है । अतः उनके द्वारा दर्शकों को / श्रोताओं को भटकाने की संभावना अधिक होती है ।

५. गुरु और संत में क्या अंतर है ?

५.१ व्यक्ति किन गुणों के कारण संत की तुलना में श्रेष्ठ गुरु पद प्राप्त करने के लिए पात्र होता है ?

प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है । केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है।
निम्नांकित सारणी दर्शाती है कि मई २०१३ में पूरे विश्‍व में कितने संत और गुरु थे ।

मई २०१३ तक विश्‍व में संतों तथा गुरुओं की संख्या

    स्त्रोत : अध्यात्म शास्त्र शोध संस्थान द्वारा १६ मई २०१३ को संचालित आध्यात्मिक शोध द्वारा प्राप्त आंकडे
 आध्यात्मिक स्तरसंतों की संख्यागुरुओं  की संख्याकुल
 ६० – ६९% ३,५०० १,५०० ५,००० 
 ७० – ७९% ५०५० १०० 
 ८० – ८९% १०१०  २०
 ९० – १००% ५५ १०
टिप्पणियां
  1. जिस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ७०% अथवा उससे अधिक है, उन्हे संत कहते हैं । संत समाज के लोगों में साधना करने की रूचि निर्माण कर उन्हे साधना पथ पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।
  2. गुरु साधकों के मोक्ष प्राप्ति तक के मार्गदर्शन का संपूर्ण दायित्व लेते हैं तथा वह प्राप्त भी करवा देते हैं ।
  3. ७०% आध्यात्मिक स्तर से न्यून स्तर के व्यक्ति को संत नहीं समझा जाता; किंतु ६० से ६९% के मध्य में हमने कुल ५००० साधक दर्शाए हैं । ६० से ६९% के मध्य के स्तर के व्यक्ति (साधक) संत अथवा गुरु बनने के मार्ग पर होते हैं । अर्थात उनमें संत अथवा गुरु बनने की पात्रता होती है । इस वर्ग के साधक यदि साधना जारी रखते हैं, तो उनमें से ७०% (अर्थात ३५००) संत होंगे और ३०% (अर्थात १५००) गुरु होंगे ।

५.२. संत और गुरु में क्या समानताएं होती हैं?

  • संत और गुरु, दोनों का आध्यात्मिक स्तर ७०% से अधिक होता है ।
  • इन दोनों में मानव जाति के प्रति आध्यात्मिक प्रेम (प्रीति), अर्थात निरपेक्ष प्रेम होता है ।
  • इन दोनों का अहंकार अत्यल्प होता है । अर्थात वे अपने अस्तित्व को पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि तक ही सीमित न कर (देहबुद्धि) आत्मा तक अर्थात भीतर के ईश्‍वर तक (आत्म बुद्धि) व्याप्त करते हैं ।

५.३ संत और गुरु की गुण विशेषताओं में (लक्षणों में) क्या अंतर होता है ?

निम्नांकित सारणी ८०% स्तर के संत और गुरु में स्थूल स्तर पर (साधारण) तुलना दर्शाती है ।

संत तथा गुरु में अंतर

संतगुरु
अन्यों के प्रति प्रेम भाव का %३०% ६०%
सेवा ३०% ५०%
त्याग ७०% ९०%
लेखन               गुणवत्ता ४  स्वभाव                                २%                                      आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रमाण अधिक                              १०%                                   आध्यात्मिक मार्गदर्शन का भाग अधिक
प्रकट शक्ति  २०%५%
आध्यात्मिक उन्नतिशीघ्रअत्याधिक शीघ्र
टिप्पणियां (उपर्युक्त सारणी के लाल अंकों पर आधारित)
  1. दूसरों से प्रेम करने का अर्थ है, दूसरों पर बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करना (निरपेक्ष प्रेम)। यह प्रेम अपेक्षा युक्त सांसारिक प्रेम से भिन्न होता है, । १००% का अर्थ है, बिना किसी शर्त के, भेदभाव विहिन, सर्वव्यापी ईश्‍वरीय प्रेम, जो ईश्‍वर द्वारा निर्मित सभी विषय वस्तुओं को, उदाहरण के लिए निर्जीव वस्तुओं से लेकर चींटी जैसे छोटे से प्राणिमात्र से लेकर सबसे बडे प्राणिमात्र मनुष्य तक को व्याप्त करता है ।
  2. सेवा का अर्थ है, सत की सेवा (सत्सेवा) अथवा अध्यात्म शास्त्र की सेवा, जो पूरे विश्‍व को नियंत्रित करते हैं और सभी धर्मों के मूलभूत अंग हैं । यहां पर १००% का अर्थ है, उनके १००% समय का तथा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक क्षमताओं का सत्सेवा के लिए त्याग करना ।
  3. त्याग का अर्थ है कि समय, देह, मन और संपत्ति का (धन का) उन्होंने ईश्‍वर की सेवा हेतु कितना त्याग किया है ।
  4. अध्यात्म शास्त्र का (अंतिम सत्य का) ज्ञान प्रदान करने वाले अथवा प्रसार करने वाले ग्रंथों का लेखन करना ।
  5. संतो एवं गुरुओं द्वारा किया लेखन क्रमशः आध्यात्मिक अनुभूतियों संबंधी तथा आध्यात्मिक मार्गदर्शन संबंधी होता है ।
  6. ईश्‍वर का कार्य मात्र उनके अस्तित्व से होता है । उन्हें कुछ प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उनकी शक्ति प्रकट स्वरूप में नहीं होती । शक्ति का स्वरूप अप्रकट होता है, जैसे कि शांति, आनंद इ. । किंतु संत और गुरु (स्थूल) देहधारी होने से वे प्रकट शक्ति का कुछ मात्रा में उपयोग करते हैं ।
  7. अहंका सरल अर्थ है कि, अपने आपको ईश्‍वरसे भिन्न समझना एवं अनुभव करना ।
    गुरु ईश्‍वर के अप्रकट रूप से अधिक एकरूप होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकट शक्ति के प्रयोग की विशेष आवश्यकता नहीं होती । गुरु की तुलना में संतों में अहं की मात्रा अधिक होने से संत गुरु की तुलना में प्रकट शक्ति का अधिक मात्रा में उपयोग करते हैं । परंतु अतिंद्रिय शक्तियों का प्रयोग कर ऐसा ही कार्य करने वालों की तुलना में यह अत्यल्प होता है । उदा. जब कोई व्यक्ति उसकी व्याधि से किसी संत के आशीर्वाद के कारण मुक्त हो जाता है, तब प्रकट शक्ति २०% होती है; किंतु इसी प्रसंग में जो व्यक्ति संत नहीं है, किंतु अतिंद्रिय (हिलींग) शक्ति से मुक्त करता है, तब यही मात्रा ५०% तक हो सकती है । ईश्‍वर की प्रकट शक्ति ०% होने के कारण, किसी के द्वारा प्रकट शक्ति का उपयोग करना ईश्‍वर से एकरूप होने के अनुपात से संबंधित है । अतः जितनी प्रकट शक्ति अधिक, उतने ही हम ईश्‍वर से दूर होते हैं । प्रकट शक्ति के लक्षण हैं – तेजस्वी और चमकीली आंखें, हाथों की तेज गतिविधियां इ.
  8. निर्धारित कार्य करने के लिए आवश्यक प्रकट शक्ति संत और गुरु को ईश्‍वर से मिलती है । कभी-कभी संत उनके भक्तों की सांसारिक समस्याएं सुलझाते हैं, जिसमें अधिक शक्ति की आवश्यकता होती है । गुरु शिष्य का ध्यान आध्यात्मिक विकास में केंद्रित करते हैं, जिससे शिष्य उसके जीवन में आध्यात्मिक कारणों से आने वाली समस्याआें पर मात करने के लिए आत्म निर्भर हो जाता है । परिणामतः गुरु अत्यल्प आध्यात्मिक शक्ति का व्यय करते हैं ।
  9. संत एवं गुरु का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ७०% होता है । ७०% आध्यात्मिक स्तर पार करने के उपरांत गुरु में संत की तुलना में आध्यात्मिक विकास की गति अधिक होती है । वे सद्गुरु का स्तर (८०%) और परात्पर गुरु का स्तर, इसी स्तर के संतों की तुलना में शीघ्रता से प्राप्त करते हैं । यह इसलिए कि वे निरंतर अपने निर्धारित कार्य में, अर्थात शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाने में व्यस्त रहते हैं; जब कि संत भी उनके भक्तों की सहायता करते हैं; किंतु सांसारिक विषयों में ।

६. देहधारी गुरु का महत्व क्या है ?

हममें से प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक, वैद्य, अधिवक्ता आदि से उनके संबंधित क्षेत्र में मार्गदर्शन लेता है । यदि इन साधारण विषयों में मार्गदर्शक की आवश्यकता लगती है, तो कल्पना करें कि जो हमें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाते हैं, उस गुरु का महत्त्व कितना होगा ।

६.१. विद्यार्थी को शिक्षा देने के परिप्रेक्ष्य में गुरु का महत्व

गुरु अनेक रूपों में आते हैं । वे हमें परिस्थिति के माध्यम से, ग्रंथों के माध्यम से, देहधारी मनुष्य के माध्यम से तथा अन्य अनेक माध्यमों से सीखाते हैं । निम्नांकित सारणी में गुरु के विविध स्वरूपों में तुलना कर दिखाई है और देहधारी गुरु का महत्त्व अधोरेखित किया है :-

देहधारी गुरु का महत्त्व

गुरु के रुपगुरु के अभाव में
देहधारीपुस्तकमूर्ति/चित्रअन्य / जीवन में आने वाले प्रसंग
शिष्य की क्षमता के अनुसार ज्ञान देनासंभवअसंभवअसंभवअसंभव –
शंकाओं का समाधानशंका के प्रारंभ होने के साथ हीअत्याधिक अध्ययन के बाद भी कुछ ही सीमा तक संभवअसंभवअसंभव –
श्रद्धा निर्मित होने हेतु आवश्यक अवधिबहुत कमअधिकऔर अधिकबहुत अधिक –
प्रोत्साहनात्मक शिक्षण तथा परिक्षासंभवअसंभवअसंभवअसंभव –
बीच में ही साधना छोडने वाले शिष्यों की संख्याकमअधिकअत्यधिकअधिकअधिक
आध्यात्मिक उन्नति हेतु लगने वाला समयकमअधिकअत्यधिकअधिकअधिक
मानस शास्त्र के अनुसार गुरु से साम्य रखने वाला शिष्य का व्यक्तिमत्त्वजिसे मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता हैस्वतंत्र स्वाभाव वालाजिसे सहायता की आवश्यकता हैस्वतंत्र स्वाभाव वालास्वतंत्र स्वभाव की मात्रा अधिक

६.२ मानसिक दृष्टि से गुरु का महत्व

आध्यात्मिक मार्गदर्शक देहधारी होने से शिष्य को मानसिक स्तर पर अनेक लाभ होते हैं ।
  • ईश्‍वर एवं देवताएं अपना अस्तित्व और क्षमता प्रकट नहीं करते; किंतु गुरु (तत्त्व) अपने आपको देहधारी गुरु के माध्यम से प्रकट करता है ।  इस माध्यम से अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी को (शिष्य के) उसकी अध्यात्म (साधना) यात्रा में उसकी ओर ध्यान देने के लिए देहधारी मार्गदर्शक मिलते हैं ।
  • देहधारी गुरु अप्रकट गुरु की भांति सर्व ज्ञानी होते हैं और उन्हें अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है, इसका ज्ञान उन्हें विश्‍व मन एवं विश्‍व बुद्धि के माध्यम से होता है । विद्यार्थी द्वारा गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है ।
  • गुरु शिष्य में न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है । पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।

६.३ अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से गुरु का महत्व

निम्नांकित सारणी साधक / शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से गुरु (तत्त्व) के देहधारी होने का महत्त्व प्रतिपादित करती है ।

देहधारी गुरु का महत्त्व

गुरु के रुपगुरु के अभाव में
देहधारीपुस्तकमूर्ति/चित्रअन्य/ जीवन में आने वाले प्रसंग
साधना में रूकावट निर्माण करने वाले प्रारब्ध, क्रियामाण कर्म को कम करने तथा अनिष्ट शक्तियों की बाधा दूर करने सम्बंधि मार्गदर्शनसंभवअसंभवअसंभवअसंभव –
गुरु के सानिध्य में रहने से उनके दिव्य चैतन्य का लाभसंभवअसंभवकमअसंभव –
गुरु कृपा के लाभसंभवअसंभवकमअसंभव –
यह लाभ ग्रहण करने हेतु साधारणत: शिष्य का आध्यात्मिक स्तर (% में)५५ % ४०%६० % ३०% –
शिष्य / साधक द्वारा किए जाने वाले प्रयत्न (% में)६० % ७०%७०%७०%१०० %
शिष्य में आवश्यक गुणसत्सेवा तथा त्यागअंतर्निहित अर्थ समझ पाए अंत:करण से मार्गदर्शन मिलनाप्रकार पर निर्भर हैअत्यधिक अहं 
प्रति वर्ष होने वाली आध्यात्मिक उन्नति२-३%०.२५ %०.२७ %०.२५ %०.००१ % 
टिप्पणियां (उपर्युक्त सारणी के लाल अंकों पर आधारित) :
  1. लगभग ५५% आध्यात्मिक स्तर पर विद्यार्थी / शिष्य में गुरु के देहधारी अस्तित्व का लाभ उठाने की दृष्टि से पर्याप्त आध्यात्मिक परिपक्वता निर्माण होती है । यह अध्यात्म में शिष्य (छात्र) वृत्ति प्राप्त करने समान है । गुरु के द्वारा ईश्‍वर प्राप्ति के संदर्भ में किए मार्गदर्शन का उचित लाभ करवाने की स्थिति आध्यात्मिक परिपक्वता के इस स्तर पर शिष्य में विकसित होती है ।
  2. किसी मूर्ति के माध्यम से लाभ करवाना तुलनात्मक दृष्टि से कुछ कठिन होता है । किसी मूर्ति अथवा चित्र द्वारा प्रक्षेपित गुरु के सूक्ष्म और बुद्धिअगम्य स्पंदन ६०% से अधिक आध्यात्मिक स्तर के व्यक्ति के लिए, जिसकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय जागृत हुई है, लाभप्रद होते हैं ।
  3. जब कोई देहधारी गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करता है, तब आध्यात्मिक प्रगति के लिए न्यूनतम प्रयत्न करने पडते हैं क्योंकि वे उचित पद्धतिसे किए जाते हैं । अन्यथा चूकें करने की संभावना अधिक होती है ।
  4. धर्म ग्रंथों का भावार्थ (गूढ अर्थ) समझ पाना कोई सरल बात नहीं है । अधिकांश समय पर धर्म ग्रंथों और पुस्तकों में अनुचित अर्थ निकाला जाने की आशंका होती है ।
  5. यहां पर अहं का अर्थ है आत्म विश्‍वास । यदि किसी के पास अधिक आत्म विश्‍वास नहीं होगा, तो उसके लिए किसी के मार्गदर्शन के अभाव में आध्यात्मिक प्रगति करना असंभव है ।
  6. आध्यात्मिक मार्गदर्शक के अभाव में प्रगति की उसी अवस्था में स्थिर रहने की अथवा नीचले स्तर पर आने की संभावना होती है ।

७. देहधारी गुरु के कुछ विशेष लक्षण

  • गुरु धर्म के परे होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं । संस्कृति, राष्ट्रीयता अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते । जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है, ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की से प्रतीक्षा में रहते हैं ।
  • गुरु किसी को धर्मांतरण करनेके लिए नहीं कहते । सभी धर्मों के मूल में विद्यमान वैश्‍विक सिद्धांतों को समझ पाने के लिए वे शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाते हैं ।
  • शिष्य / साधक किसी भी मार्ग अथवा धर्म के अनुसार मार्गक्रमण करें, अंत में सभी मार्ग गुरुकृपायोग में विलीन हो जाते हैं।
HIN-all-paths-lead-to-guru
गुरु का कार्य संकल्प की आध्यात्मिक शक्ति के माध्यम से होता है । ईश्‍वर द्वारा प्रदत्त शक्ति से वे पात्र शिष्य की उन्नति मात्र शिष्य की उन्नति हो इस विचार के माध्यम से करवाते हैं । अध्यात्म शास्त्र का साधक / शिष्य देहधारी गुरु की कृपा के और मार्गदर्शन के बिना ७०% आध्यात्मिक स्तर पर नहीं पहुंच पाता । इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक उन्नति के आरम्भ के चरणों में, हमारी उन्नति केवल साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर हो सकती है । किंतु विशिष्ट चरण के उपरांत आध्यात्मिक ज्ञान इतना सूक्ष्म होता जाता है कि कोई भी उसकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) द्वारा दिग्भ्रमित हो सकता है । इसलिए सभी को संत बनने तक की आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर अचूकता से मार्गक्रमण करने के लिए अति उन्नत देहधारी गुरु की आवश्यकता होती है ।
  • संत का स्तर प्राप्त करने पर भी सभी को गुरुकृपा का स्रोत सदैव बनाए रखने के लिए अपनी आध्यात्मिक साधना जारी रखनी पडती है ।
  • संपूर्ण आत्म ज्ञान होने तक वे शिष्य की उन्नति करते रहते हैं । छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय ग्रहण क्षमता) द्वारा जो लोग माध्यम बनकर सूक्ष्म देहों से (आत्माएं) सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसके यह विपरीत है । जब कोई केवल माध्यम होकर कार्य करता है, तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती ।
  • गुरु और शिष्य के संबंध पवित्र (विशुद्ध) होते हैं और गुरु को शिष्य के प्रति निरपेक्ष और बिना शर्त प्रेम होता है ।
  • सर्वज्ञानी होने से शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता है ।
  • तीव्र प्रारब्ध पर मात करना केवल गुरुकृपा से ही संभव होता है ।
  • गुरु शिष्य को साधना के छः मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन करते हैं । वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते ।
  • गुरु सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं । उदा. शिष्य की आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार गुरु भक्ति गीतों का (भजनों का) गायन, नामजप, सत्सेवा इत्यादि में से किसी भी साधना मार्ग से साधना बताते हैं । मद्यपान मत करो, इस प्रकार से आचरण मत करो आदि पद्धतियों से वे नकारात्मक मार्गदर्शन कभी नहीं करते । इसका कारण यह है कि कोई कृत्य न करें, ऐसा सीखाना मानसिक स्तर का होता है और इससे आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से कुछ साध्य नहीं होता । गुरु शिष्य की साधना पर ध्यान केंद्रित करते हैं । ऐसा करने से कुछ समय के उपरांत शिष्य में अपने आप ही ऐसे हानिकर कृत्य त्यागने की क्षमता निर्माण होती है ।
  • मेघ सर्वत्र समान वर्षा करते हैं, जब कि पानी केवल गढ्ढों में ही एकत्र होता है और खडे पर्वत सूखे रह जाते हैं । इसी प्रकार गुरु और संत भेद नहीं करते । उनकी कृपा का वर्षाव सभी पर एक समान ही होता है; परंतु जिनमें सीखने की और आध्यात्मिक प्रगति करने की शुद्ध इच्छा होती है, वे गढ्ढों समान होते हैं, जो कि कृपा और कृपा के लाभ ग्रहण करने में सफल होते हैं ।
  • गुरु सर्वज्ञानी होने के कारण अंतर्ज्ञान से समझ पाते हैं कि शिष्य की आगामी आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या आवश्यक है । वे प्रत्येक को भिन्न-भिन्न मार्गदर्शन करते हैं ।

८. हम आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक को कैसे पहचाने और प्राप्त करें ?

साधना करने वाले शिष्य के लिए गुरु की क्षमता का अनुमान लगाना कठिन है । यह शिष्य द्वारा गुरु की परीक्षा करने समान है ।
जो विश्व पंचज्ञानेंद्रिय, मन और बुद्धि के परे है, उस विश्व को SSRF 'सूक्ष्म विश्व' अथवा 'आध्यात्मिक आयाम' कहता है । सूक्ष्म विश्व देवदूत, अनिष्ट शक्तियां, स्वर्ग आदि अदृश्य विश्व से संबंधित है जिसे केवल छ्ठवीं इंद्रिय के माध्यम से समझा जा सकता हैं | ।
किसी व्यक्ति की परीक्षा करने के लिए हमारी पात्रता उससे अधिक होनी चाहिए । गुरु की परीक्षा करने के लिए शिष्य ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु की क्षमता सूक्ष्म अथवा आध्यात्मिक स्तर पर, अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन, बुद्धि की समझ के परे होती है । इसका मापन अतिजागृत छठवी ज्ञानेंद्रिय द्वारा ही संभव होता है ।
इससे सामान्य मनुष्य असमंजस में पड जाता है कि किसका मार्गदर्शन लें ।
स्पिरिच्युअल साइंस रिसर्च फाऊंडेशन सुझाव देता है कि गुरु की खोजमें नहीं जाना चाहिए । अपना आध्यात्मिक मार्गदर्शक किसे बनाना है, इस संदर्भ में सोचने की आध्यात्मिक परिपक्वता लभगभ किसी के भी पास नहीं होती है ।
सात्त्विक बुद्धिमें प्रधान घटक सत्त्व होता है और ऐसी बुद्धि साधना करनेसे प्राप्त होती है । सांसारिक (मायासंबंधी) विषयोंमें प्रयोग करनेकी अपेक्षा वह अब ईश्‍वरकी सेवामें और आध्यात्मिक प्रगति करनेके लिए समर्पित होती है । जबतक बुद्धि सात्त्विक नहीं होती, तबतक धार्मिक ग्रंथोंका भावार्थ समझ पाना कठिन होता है ।
स्पष्टता से समझ पाने की क्षमता का विकास करने के लिए व्यक्ति द्वारा अध्यात्म शास्त्र के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार नियमित रूप से साधना करना आवश्यक होता है । इससे आध्यात्मिक प्रगति के साथ बुद्धि भी सात्त्विक होगी । सर्वव्यापी निर्गुण (अप्रकट) गुरु तत्त्व का अथवा ईश्‍वर द्वारा शिक्षा प्रदान करने वाले तत्त्व का हमारी ओर सदैव ध्यान होता है । जब व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५५% के आसपास होता है, तब देहधारी गुरु उसके जीवन में आते हैं । (वर्तमान युग के लोगों का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर २०% होता है ।) ५५% आध्यात्मिक स्तर पर अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी में (शिष्य में) वह परिपक्वता होती है कि वह सात्त्विक बुद्धि द्वारा खरे गुरू को पहचान सके ।

८.१ पाखंडी अथवा अनाधिकारी गुरु
आज के समाजमें ८०% गुरु पाखंडी अथवा अनाधिकारी होते हैं । अर्थात उनका आध्यात्मिक स्तर ७०% से बहुत ही कम होता है और वे विश्‍व मन और विश्‍व बुद्धि के संपर्क में नहीं होते । कुछ प्रसंगों में ऐसे व्यक्तियों में साधना द्वारा प्राप्त किसी सिद्धि के कारण सहस्रो लोगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है ।
उदा. ५०% स्तर के किसी व्यक्ति को गत जन्म की साधना से प्राप्त सिद्धि के कारण बचपन से ही व्याधियों पर उपाय कर संभव होता होगा । वर्तमान युग में लगभग पूरे मानव वंश का आध्यात्मिक २०-२५% के आसपास होने से कोई संत है अथवा नहीं यह स्पष्टरूप से पहचानने की उसमें क्षमता नहीं होती । अतः जो व्यक्ति उसकी व्याधि ठीक करता है अथवा कोई चमत्कार करता है, ऐसे व्यक्ति का वह अनुयायी बन जाता है ।
सामान्य मनुष्य के हित के लिए हमने खरे गुरु कैसे नहीं होते हैं, ऐसे कुछ सूत्रों की सूची बनाई है । ये कुछ सूत्र हैं, जो पाखंडी आध्यात्मिक मार्गदर्शकों को आपकी बुद्धि द्वारा पहचानने में और उनकी परीक्षा करने में आपकी सहायता करेंगे । ये कुछ घटनाएं (उदाहरण) हैं, जहां ऐसे पाखंडी गुरुओं ने अपनी पोल अपने ही आचरण से खोल दी है ।
१. दूसरों में हीन भावना निर्माण करने वाले और अपनी विद्वत्ता का बडप्पन का दिखावा करने का प्रयत्न करनेवाले गुरु :
दंडवत करने के लिए आए लोगों से एक संत उनका नाम और उनकी आयु पूछते थे । एक बार उन्होंने कहा, दोनों उत्तर चूक हैं । नाम और आयु देह से संबंधित है । तुम आत्मा हो । आत्मा का कोई नाम नहीं है और आयु भी । तत्पश्‍चात वे अध्यात्म शास्त्र के संदर्भ में बातें करते थे और पूछते थे, क्या तुम आध्यात्मिक साधना करते हो ? यदा कदाचित कोई सकारात्मक उत्तर दे देता, तो वे पूछते थे, कौन सी साधना करते हो ? यदि कोई कहता, मेरे गुरु के द्वारा बताई साधना, तो वे कहते थे, तुम्हारी आयु और नाम के बारे में पूछे गए सरल प्रश्‍न का भी उत्तर तुम नहीं दे सके, तो तुम्हारे गुरु ने तुम्हें क्या सीखाया है ? केवल खरे गुरु ही ऐसे प्रश्‍नों का उत्तर दे सकते हैं । मेरे पास आओ । मैं तुम्हें बताऊंगा ।
ऐसे पाखंडी गुरु से यह कहना चाहिए, असल में आपका प्रश्‍न ही निरर्थक था ! आपकी देहबुद्धि अधिक होने के कारण आपने मुझे मेरे नाम और आयु के बारे में पूछा था, इसलिए मैंने भी देहबुद्धि रखते हुए उत्तर दिया ।
यह कैसे गुरु हैं, जो प्रथम दर्शन में ही समझ नहीं पाते कि किसी के गुरु हैं अथवा नहीं, अथवा किसी की साधना उचित ढंग से हो रही है अथवा नहीं ?
२. संपत्ति और स्त्री के प्रति आसक्त गुरु
३. धोखे में रखना
समय तथा घडी के पट्टे के बंधन में न रहने के लिए एक गुरु घडी का उपयोग नहीं करते थे । किंतु प्रति १५-२० मिनट में दूसरों को पूछा करते थे, कितने बजे हैं ?
४. प्रसिद्धी की  लालसा
जिन्हें गुरु बनने की इच्छा होती है और कुछ सीमा तक जिनकी आध्यात्मिक प्रगति हुई है, ऐसे कुछ लोग दूसरों को किसी न किसी प्रकार की साधना बताते रहते हैं । लगभग सभी उदाहरणों में वे जैसा बोलते हैं, वैसा आचरण उनका नहीं होता है । परिणाम स्वरूप यह देखा गया है कि जो साधक उनके बताए अनुसार साधना करने लगते हैं, उनकी प्रगति होने लगती है और तथाकथित गुरु वैसे के वैसे ही रह जाते हैं ।
५. शिष्यों को अपने पर निर्भर करना
कुछ गुरुओं को भय लगता है कि यदि वे पूरा आध्यात्मिक ज्ञान अपने शिष्यों को दे डालेंगे, तो उनका महत्त्व अल्प होगा । इसलिए वे शिष्यों को पूरा ज्ञान नहीं देते ।

९. सारांश

इस लेख द्वारा हमें निम्न प्रमुख सूत्रों से सीखना है ।
  • गुरु ७०% आध्यात्मिक स्तर से अधिक स्तर के मार्गदर्शक होते हैं ।
  • गुरु की खोजमें न जाएं, क्योंकि लगभग सभी प्रसंगों में आप जिसकी खोज में है वह व्यक्ति गुरु ही हैं, यह आप स्पष्ट रूप से निश्‍चित नहीं कर पाएंगे ।
  • इसकी अपेक्षा अध्यात्म शास्त्र के मूलभूत छः सिद्धांतों के अनुसार आध्यात्मिक साधना करें । इससे आपको आध्यात्मिक परिपक्वता के उस चरण तक पहुंचने में सहायता होगी, जिससे पाखंडी गुरु के द्वारा धोखा देने से बचना संभव होगा ।
  • संत पद प्राप्त करना, अर्थात ७०% आध्यात्मिक स्तर गुरुकृपा के बिना संभव नहीं है ।

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