शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय 09

हिंदी अनुवाद :-
अध्याय के आरंभ में भगवान ने विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी । उसके अनुसार विषय का वर्णन करते हुए अंत में ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधियज्ञ के सहित भगवान को जानने की एवं अंत काल के भगवत्चिंतन की बात कही । श्रीभगवान बोले - तुझे दोषदृष्टि रहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुन: भली भांति कहूंगा, जिसको जानकर तुम दुख रूप संसार से मुक्त हो जाएगा । जो गुणवानों के गुणों का खंडन नहीं करता, थोड़े गुणवालों की भी प्रशंसा करता है और दूसरे के दोषों में प्रीति नहीं करता, उस मनुष्य का भाव अनसूया कहलाता है । यह विज्ञान सहित सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है ।
इस जिज्ञासा पर अश्रद्धा को ही इसमें प्रधान कारण दिखलाने के लिए भगवान अब इसपर श्रद्धा न करने वाले मनुष्यों की निंदा करते हैं । इस धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्र में करते रहते हैं । मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् जल से बरफ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थिर हैं, किंतु वास्तव में उनमें स्थित नहीं हूं । वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों धारण - पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है । विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करते हुए भगवान ने यहां तक प्रभाव सहित अपने निराकारस्वरूप का तत्त्व समझाने के लिए उसकी व्यापकता, असंगता और निर्विकारता का प्रतिपादन किया ।
अब अपने भूत भावन स्वरूप का स्पष्टिकरण करते हुए सृष्टिचनादि कर्मों का समझाने के लिए कल्पों के अंत में सब भूतों का प्रलय और कल्पों के आदि में उनकी उत्पत्ति का प्रकार बतलाते हैं - कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं। अपनी प्रकृति को अंगीकार करते स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बार - बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूं । इस प्रकार जगत - रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान उन कर्मों के बंधन में क्यों नहीं पड़ते, अब यहीं तत्त्व समझाने के लिए भगवान कहते हैं कि उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते । मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है ।मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्यरूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं । सब लोकों के महान ईश्वर भगवान वासुदेव दतुम सबके पूजनीय हैं । वे ही परम पद, परम ब्रह्म और परम यश: स्वरूप हैं । वे ही अक्षर हैं, अव्यक्त हैं, सनातन हैं, परम तेज हैं, परम सुख हैं और परम सत्य हैं । देवता, इंद्र और मनुष्य, किसी को भी उन अमित पराक्रमी प्रभु वासुदेव को मनुष्य मानकर उनका अनादर नहीं करना चाहिए ।
जो मूढमति लोग उन हृषीकेश को मनुष्य बतलाते हैं, वे नराधम हैं । जो मनुष्य इन महात्मा योगेश्वर को मनुष्य - देहधारी मानकर इनका अनादर करते हैं और जो इन चराचर के आत्मा श्रीवत्स के चिंहवाले महान तेजस्वी भगवान को नहीं पहचानते , वेतामसी प्रकृति से युक्त हैं । जो इन कौस्तुभ किरीटधारी और मित्रों को अभय करने वाले भगवान का अपमान करता है, वह अत्यंत भयानक नरक में पड़ता हैं । व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किए रहते हैं । दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाश रहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं ।
देवताओं को पूजन वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं । इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता । जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण किया हुआ वह पत्र - पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूं । मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूं न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूं । यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है । अर्थात् उसने भलीभांति निश्चिय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।
इस प्रकार से भगवान ने अपने भजन का महत्त्व दिखलाया और अंत में अर्जुन को भजन करने के लिए कहा । अत एव अब भगवान अपने भजन का अर्थात शरणगति का प्रकार बतलाते हुए अध्याय की समाप्ति करते हैं कि मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तुम मुझको ही प्राप्त होगे ।

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सुनील भगत 

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