सोमवार, 7 दिसंबर 2015

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5

हिंदी अनुवाद :-
तीसरे और चौथे अध्याय में अर्जुन ने भगवान् के श्रीमुख से अनेकों प्रकार से कर्मयोग की प्रशंसा सुनी और उसके सम्पादन की प्रेरणा तथा आज्ञा प्राप्त की। साथ ही यह भी सुना कि 'कर्मयोग के द्वारा भगवत्स्वरुप का तत्त्वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है' (4|38); चौथे अध्याय के अन्त में भी उन्हें भगवान् के द्वारा कर्मयोग के सम्पादन की ही आज्ञा मिली। परंतु बीच-बीच में उन्होंने भगवान् के श्रीमुख से ही 'ब्रह्मार्पणं ब्रह्मा हविः','ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति','तद्विद्धि प्रणिपातेन' आदि वचनोंद्वारा ज्ञानयोग अर्थात् कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा सुनी। इससे अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है। अतएव अब भगवान् के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते हैं---
अर्जुन बोले – हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिये इन दोनों में से जो एक भलीभांति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये ।।1।।
श्रीभगवान् बोले— कर्मसंन्यास और कर्मयोग—ये दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है ।।2।।
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है।
वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है ।।3।।
उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्-पृथक् फल देनेवाले कहते हैं न कि पण्डित जन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरुप परमात्मा को प्राप्त होता है ।।4।।
ज्ञानयोगियों द्वारा जो परधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरुप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है ।।5।।
परंतु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरुप को मनन करनेवाला कर्मयोगी परब्रह्मा परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।।6।।
जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरणवाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरुप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता ।।7।।
तत्त्व को जाननेवाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मूंदता हुआ भी सब इन्द्रियां अपने-अपने अर्थों में बरत रहा हैं—इस प्रकार समझकर निःसन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं ।।8-9।।
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर के और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता ।।10।।
कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि, और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अतःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं ।।11।।
कर्मयोगी कर्मों के फलका त्याग कर के भगवत्प्राप्तिरुप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त हाकर बॅंधता है ।।12।।
अन्तः करण जिसके वश में है ऐसा सांख्ययोगका आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरुप में स्थित रहता है ।।13।।
परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं ; किंतु स्वभाव ही बर्त रहा है।।14।।
सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।।15।।
परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्त्वज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।।16।।
जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरन्तर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात् परमगति को प्राप्त होते हैं।।17।।
वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त्त ब्राह्मण में तथा, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं।।18।।
जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थ्त हैं।।19।।
जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह सथिरबुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकी भाव से नित्य सथित है।।20।।
बाहर के विषयों में आसक्त्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मा में सथित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है ; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यान रुप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है।।21।।
जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख रुप भासते हैं तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।22।।
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।।23।।
जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकी भावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।।24।।
जिन के सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिन के सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।25।।
काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं।।26।।
बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित कर के तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान-वायु को सम कर के, जिसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि जीती हुई हैं---- ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।।27-28।।
मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्र्वरों का भी ईश्र्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।29।।

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सुनील भगत 

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